Wednesday 17 December 2014

बार-बार धिक्कार



दर्ज़ हुई इतिहास में, फिर काली तारीख़।
मानवता आहत हुई, सुन बच्चों की चीख़।।

कब्रगाह  को  देख  कर, सिसके  माँ  का  प्यार। 
सारी  दुनिया  कह  रही, बार-बार  धिक्कार।।

मंसूबे  जाहिर  हुए, करतूतें  बेपर्द। 
कैसा  ये  जेहाद  है, कायर  दहशतगर्द।।

होता  है  क्यूँकर  भला, बर्बर  कत्लेआम।
हिंसा औ' आतंक पर, अब तो लगे लगाम।।

दुःख  सबका  है  एक  सा, क्या  मज़हब, क्या  देश।
पर  पीड़ा  जो  बाँट  ले,  वही  संत  दरवेश।।

© हिमकर श्याम  

(चित्र गूगल से साभार)



Saturday 6 December 2014

किसे सुनाएँ पीर


जन-जन में है बेबसी, बदतर हैं  हालात। 
कैसा अबुआ राज है, सुने न कोई बात।।  

उजड़ गयीं सब बस्तियाँ, घाव बना नासूर। 
विस्थापन का दंश हम, सहने को मजबूर।। 

जल, जंगल से दूर हैं, वन के दावेदार।
रोजी-रोटी के लिए, छूटा घर संसार।। 

अब तक पूरे ना हुए, बिरसा के अरमान। 
शोषण-पीड़ा है वही, मिला नहीं सम्मान।।  

अस्थिरता, अविकास से, बदली ना तक़दीर। 
बुनियादी सुविधा नहीं, किसे सुनाएँ पीर।।

सामूहिकता, सादगी और प्रकृति के गान। 
नए दौर में गुम हुई, सब आदिम पहचान।। 

भ्रष्ट व्यवस्था ने रचे, नित नए कीर्तिमान।
सरकारें आयीं-गयीं, चलती रही दुकान।। 

© हिमकर श्याम  
(चित्र गूगल से साभार)


झारखण्ड के हालात बदलें, वोट जरूर करें


Saturday 29 November 2014

तुम दिव्य वृन्दावन सी


त्वं जीव शरदः सहस्रम्

चाँद-तारों ने तुमको गगन से निहारा 
मंगलमय हो जन्मदिन अक्षिता तुम्हारा 

हरपल हँसती रहो तुम, मुस्कुराती रहो 
आँगन में पंछियों सी, चहचहाती रहो 
तुमसे सुरभित हुआ है, मन उपवन सारा 

तुम दिव्य वृन्दावन सी, घर गोकुल हमारा 
तुम कान्हा की मुरली, यमुना की धारा 
तुमहीं हमारी खुशियाँ, सुख चैन हमारा

© हिमकर श्याम  

[हमारी प्यारी बिटिया (भतीजी) अक्षिता सुदिति (कीर्ति) का प्रथम जन्मदिन 22-11-2014 को था. बिटिया के लिए एक छोटी सी कविता लिखी थी, आज पोस्ट कर रहा हूँ. आप सब भी बिटिया अक्षिता को अपना स्नेहिल आशीर्वाद दें]

Monday 3 November 2014

अज़्म के दीप हवाओं में जलाते रहिए

[मित्रों, नमस्कार! ब्लॉग जगत में प्रवेश के आज एक वर्ष पूरे हो गये। सभी पाठकों, ब्लॉगर बंधुओं, मित्रों, शुभचिन्तकों, प्रशंसकों, समर्थकों और आलोचकों का हार्दिक धन्यवाद। 3 नवम्बर, 2013 को मैंने इस ब्लॉग पर पहली पोस्ट लिखी थी। इस एक साल के सफ़र में आप सब ने जो सहयोग, प्यार और मान  दिया है, उस के लिये मैं बहुत-बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। पाठकों के सहयोग के वगैर कोई भी व्यक्ति अधिक समय तक नहीं लिख सकता। अपना स्नेह ऐसे ही बनाये रखें, ताकि मैं अपनी पूरी ऊर्जा, सामर्थ्य, निष्ठा और लगन के साथ लिखता रहूँ। इस मौके पर एक ग़ज़ल आप सब के लिए आपकी शुभकामनाओं, स्नेह, सहयोग और मशवरों का आकांक्षी...]


ज़िन्दगी के इन अज़ाबों को उठाते रहिए
ग़म हजारों हों मगर हँसते हँसाते रहिए

बंदिशें टूट भी जाती हैं सुना है हमने
ग़ाम हर ग़ाम नयी राह बनाते रहिए

मंजिलें दूर अभी, राह जरा है मुश्किल
हौसले दिल में लिए खुद को बढ़ाते रहिए

वक़्त की लहरें बहा देंगी घरौंदे कच्चे
इन थपेड़ों से घरौंदों को बचाते रहिए

जिनकी आंखों में कोई ख़्वाब नहीं सजते हैं
उनकी आंखों में उम्मीदों को जगाते रहिए

हौसलेवाले न घबराते किसी तूफां से
अज़्म के दीप हवाओं में जलाते रहिए

आसमानों से बरसती नहीं अब के रहमत
गुल ख़ज़ाँओ में लहू देके खिलाते रहिए

अजनबी शहर है हर शख़्स नया लगता है
कौन है, क्या है जरा हमको बताते रहिए

दुश्मनी में भी मोहब्बत के चलन रस्म-ओ-रवाज
रंग उल्फ़त के युं चहरों पे चढ़ाते रहिए

सख़्त होती है वफाओं की सबीलें 'हिमकर'
गर हो मंज़िल की तलब पाँव बढ़ाते रहिए

अज़ाब : पीड़ा, ग़ाम : पग, अज़्म : संकल्प, रहमत : कृपा, सबील : मार्ग  

© हिमकर श्याम  
(चित्र गूगल से साभार)

Wednesday 29 October 2014

छठ अनुपम त्यौहार


मान विगत को कम नहीं, आगत का सत्कार।
चार दिनों तक व्रत चले, छठ अनुपम त्यौहार।।

आदिदेव के अर्घ्य से, मिटते हैं दुःख क्लेश।
रिद्धि-सिद्धि, सुख-सम्पदा, यश का हो उन्मेष।। 

करें सूर्योपासना, रखें शुद्ध परिवेश। 
समता औ' सद्भाव का, याद रखें संदेश।।

[छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ]

© हिमकर श्याम  

(चित्र गूगल से साभार)



Thursday 23 October 2014

निष्ठुर तम हम दूर भगाएँ

मानव-मानव का भेद मिटाएँ
      दिल से दिल के दीप जलाएँ

आँसू की यह लड़ियाँ टूटे
खुशियों की फुलझड़ियाँ छूटे 
शोषण, पीड़ा, शोक भुलाएँ
      दिल से दिल के दीप जलाएँ

कितने दीप जल नहीं पाते
कितने दीप बुझ बुझ जाते
दीपक राग मिलकर गाएँ
      दिल से दिल के दीप जलाएँ

बाहर बाहर उजियारा है 
भीतर गहरा अँधियारा है 
अंतर्मन में ज्योति जगाएँ
      दिल से दिल के दीप जलाएँ

मंगलघट कण कण में छलके
कोई उर ना सुख को तरसे 
हर धड़कन की प्यास बुझाएँ
      दिल से दिल के दीप जलाएँ

आलोकित हो सबका जीवन
बरसे वैभव आँगन आँगन 
निष्ठुर तम हम दूर भगाएँ 
दिल से दिल के दीप जलाएँ

रोशन धरती, रोशन नभ हो
शुभ ही शुभ हो, अब ना अशुभ हो
कुछ ऐसी हो दीपशिखाएँ
      दिल से दिल के दीप जलाएँ


(चित्र गूगल से साभार)

[शुभ्र ज्योत्सना का यह पावन पर्व-आपके और आपके परिजनों के लिये सुख, समृद्धि, शांति, आरोग्य एवं धन-वैभव दायक हो इसी कामना के साथ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!]       

[हिंदी तिथि के अनुसार आज इस ब्लॉग के एक वर्ष पूरे हो गए हैं. गत वर्ष दीपावली के दिन  ब्लॉग पर लेखन आरम्भ किया था. समस्त ब्लॉगर मित्रों, पाठकों, शुभचिन्तकों, प्रशंसकों, आलोचकों का हार्दिक धन्यवाद... अपना स्नेह ऐसे ही बनाये रखें…]

© हिमकर श्याम


Tuesday 21 October 2014

माटी का दीपक बने, दीप पर्व की शान


चाक घुमा कर हाथ से, गढ़े रूप आकार।
समय चक्र ऐसा घुमा, हुआ बहुत लाचार।।
चीनी झालर से हुआ, चौपट कारोबार।
मिट्टी के दीये लिए, बैठा रहा कुम्हार।।
माटी को मत भूल तू, माटी के इंसान।
माटी का दीपक बने, दीप पर्व की शान।।

सज धज कर तैयार है, धनतेरस बाजार
महँगाई को भूल कर, उमड़े खरीददार।
सुख, समृद्धि, सेहत मिले, बढ़े खूब व्यापार।
घर, आँगन रौशन रहे, दूर रहे अँधियार।।
कोई मालामाल है, कोई है कंगाल।
दरिद्रता का नाश हो, मिटे भेद विकराल।।

चकाचौंध में खो गयी, घनी अमावस रात।
दीप तले छुप कर करे, अँधियारा आघात।।
दीपों का त्यौहार यह, लाए शुभ सन्देश।
कटे तिमिर का जाल अब, जगमग हो परिवेश।। 
ज्योति पर्व के दिन मिले, कुछ ऐसा वरदान।
ख़ुशियाँ बरसे हर तरफ़, सबका हो कल्याण।।

© हिमकर श्याम 


(चित्र गूगल से साभार)
















Saturday 11 October 2014

कोई जादू लगे है ख़यालात भी

खूब होती शरारत मेरे साथ भी
सब्र को अब मिले कोई सौगात भी

रंजिशे और नफरत भुला कर सभी
हो कभी दिल से दिल की मुलाक़ात भी

है बला की कशिश और लज़्ज़त जुदा
कोई जादू लगे है ख़यालात भी

फ़ासले अब मिटें, बंदिशें सब हटें
प्यार की छांव में बीते दिन-रात भी

है लबों पे दुआ गर सुनो तुम सदा
हो अयाँ आंखों से दिल के जज़्बात भी

चाहतों से महकता रहे सहने दिल
हम पे रहमत करे अब ये बरसात भी

दूर रख इन ग़मों को चलो कुछ हँसे
वक़्त के साथ बदलेंगे हालात भी

अयाँ: जाहिर, सहन: आँगन

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

Saturday 13 September 2014

हिंदी अपनी शान हो


आज़ादी बेशक़ मिली, मन से रहे गुलाम।
राष्ट्रभाषा पिछड़ गयी, मिला न उचित मुक़ाम।।

सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल।
हिंदी अपने देश में, उपेक्षित बदहाल।।

शिक्षा, शासन हर जगह, अंग्रेजी राज।
निज भाषा को छोड़कर, परभाषा पर नाज।।

मीरा, कबीर जायसी, तुलसी, सुर, रसखान। 
भक्तिकाल ने बढ़ाया, हिंदी का सम्मान।। 

देश प्रेमियों ने लिखे, थे विप्लव के गान।
इष्ट क्रांति की चेतना, हिंदी का वरदान।।

हिंदी सबको जोड़ती, करती है सत्कार।
विपुल शब्द भण्डार है, वैज्ञानिक आधार।।

स्वर व्यंजन के मेल का, नहीं है कोई जोड़। 
देवनागरी को कहें, ध्वनि शास्त्री बेजोड़।। 

बिन हिंदी चलता नहीं, भारत का बाज़ार।  
टी .वी., फिल्मों को मिला, हिंदी से विस्तार।। 

भाषा सबको बाँधती, भाषा है अनमोल।
हिंदी उर्दू मिल गले, देती हैं रस घोल।।

सब भाषा को मान दें, रखें सभी का ज्ञान। 
हिंदी अपनी शान हो, हिंदी हो अभिमान।। 

हिंदीजन मिल कर करें, हिंदी का उत्थान।
हिंदी हिंदुस्तान की, सदियों से पहचान।।
© हिमकर श्याम  

(चित्र गूगल से साभार)

[आप सभी को हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ !!]


Thursday 28 August 2014

हमसफ़र सपने

(चित्र गूगल से साभार)
अविरल घूमा करते हैं
हमारे आस-पास
तैरते हैं हर वक़्त
हमारी आँखों में
ख़्वाहिशों और कोशिशों के
एकमात्र साक्षी-सपने

बनते-बिखरते
सुलगते- मचलते
गिरते- संभलते
फूल सा महकते
काँच सा चटकते
हसरतों से तकते
ये बेज़ुबां सपने

अलग-अलग रंगों में
रूपों-आकारों में
आहों-उलाहनों में
गीतों में छंदों में
उदासियों-तसल्लियों में
देहरी पर, आँगन में
रहते हैं साथ-साथ
हैं हमसफर सपने

इन्हीं सपनों को
संजोया था हमने
कभी मन में
इन्हीं सपनों में
तलाशते रहे हम
जीवन के रंग
सपने, कभी हो न सके पूरे
रह गए हर बार अधूरे  
फिर भी बुनते रहें हम
सपनों की सतरंगी झालर
उम्मीदें चूमती रहीं
सपनों का माथा
वक़्त कतरता रहा
सपनों के पर
टूटते-दरकते रहे
सपने दर सपने
बिखरती रहीं ख़ुशियाँ तमाम
टूटते रहे धैर्य और विश्वास

ओह! ये रेज़ा-रेज़ा सपने।

© हिमकर श्याम



Thursday 14 August 2014

क्या जश्ने आज़ादी

(चित्र गूगल से साभार) 

तड़प रही आबादी
क्या जश्ने आज़ादी

जन-गण में लाचारी
भूख  और बेकारी
हर आँखें फरियादी
क्या जश्ने आज़ादी

दर्द और तक़लीफ़ें   
टूट रही उम्मीदें
मुश्किलें बेमियादी
क्या जश्ने आज़ादी

ना बिजली, ना पानी
नित मारती गिरानी
खुशियाँ लगे मियादी
क्या जश्ने आज़ादी

यह मजहबी दरारें
जाति, धर्म, दीवारें 
हुकूमत में फ़सादी
क्या जश्ने आज़ादी

आगे-पीछे घातें
आतंक की बिसातें
बैचैन ज़िन्दगानी
क्या जश्ने आज़ादी

शहर शहर बंजारे 
गरीबों की कतारें
ज़ख्मों के सब आदी
क्या जश्ने आज़ादी

सत्ता की मनमानी
रिश्वत बेईमानी
अब दागदार खादी
क्या जश्ने आज़ादी

केवल सिसकियाँ रहीं
कुछ तब्दीलियाँ नहीं
काग़ज़ी कामयाबी
क्या जश्ने आज़ादी

अंदाज़ बदलता है
बस ताज़ बदलता है
जाती नहीं गुलामी
क्या जश्ने आज़ादी

हर तरफ तंगहाली
दूर अभी खुशहाली
हो जंग की मुनादी
क्या जश्ने आज़ादी

 © हिमकर श्याम

[जयहिन्द, आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!]

Friday 25 July 2014

उमड़ घुमड़ घन बदरा आये



उमड़ घुमड़ घन बदरा आये।
नयनों में बन कजरा छाये।।

खेतों में, खलिहानों में
धरती की मुस्कानों में
मन की गांठें खोल-खोल कर
प्रेम सुधा सब पर बरसाये।
उमड़ घुमड़ घन बदरा आये।।

चरवाहों के पट पड़ाव को
हरवाहों के मनोभाव को
यादों के हर घाव-घाव को
हर पल बैरी खूब सताये।
उमड़ घुमड़ घन बदरा आये।।

सरगम-सरगम शहर गांव है
आरोह-अवरोह भरा छांव है
पुरवइया मन के तारों पे
मौसम राग मल्हार सुनाये।
उमड़ घुमड़ घन बदरा आये।।

एक रस कण-कण को अर्पित
धरा द्रौपदी पुलकित-पुलकित
कोई देखो कौन समर्पित
कितने अस्फुट स्वर में गाये।
उमड़ घुमड़ घन बदरा आये।।

प्राणों की मौन पुकारों में
सारी रूठी मनुहारों में
गुल, गुलशन, गुलजारों मे
कौन ये जीवन रस छलकाये।
उमड़ घुमड़ घन बदरा आये।।

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


Tuesday 15 July 2014

कहाँ छुपे हो मेघ तुम


(चित्र गूगल से साभार) 


सावन में धरती लगे, तपता रेगिस्तान  
सूना अम्बर देख के, हुए लोग हलकान  

कहाँ छुपे  हो मेघ तुम, बरसाओं अब नीर  
पथराये हैं नैन ये,  बचा न मन का धीर

बिन पानी व्याकुल हुए, जीव-जंतु इंसान
अपनी किस्मत कोसता, रोता बैठ किसान  

सूखे-दरके खेत हैंकैसे उपजे धान 
मॉनसून की मार से, खेती को नुकसान

खुशियों के लाले पड़े, बढ़े रोज संताप  
मौसम भी विपरीत है, कैसा यह अभिशाप

सूखे पोखर, ताल सब, रूठी है बरसात  
सूखे का संकट हरो, विनती सुन लो नाथ       

© हिमकर श्याम