Sunday 26 January 2014

हर शख़्स अपने हाल से बेज़ार, देखिए


 (चित्र गूगल से साभार)

रहज़न बने हुए हैं शहरयार, देखिए
वैसाखियों पे चल रही सरकार, देखिए

तारीकियां, तबाहियां, जुल्म़ों सितम, बला
कब तक रखेंगे मुल्क को बीमार देखिए

ख़ुश हो रहे हैं लोग अब ईमान बेच कर
ये रिश्वतों पे चल रहे व्यापार, देखिए

पहुंचा है किस मुक़ाम पे तर्ज़े अमल यहां
हर ऐब हुक्मरां के हैं नमुदार देखिए

जाती नहीं सदा कोई गद्दी नशीन तक
सबने उठाई राह में दीवार, देखिए

अब तो हदे निगाह में मायूसियां फ़क़त
सब झूठे दम दिलासे से आज़ार, देखिए

हर दिन बदल रही यहां शर्ते हयात की
हर शख़्स अपने हाल से बेज़ार, देखिए

बेकार की बहस में रहे उलझे हुक्मरां
उनका नहीं है हमसे सरोकार, देखिए

गर्दे सफ़र है साथ में, बिछड़ा है कारवां
फ़ाक़ों में दब के रह गये रहवार, देखिए

जम्हूरियत का शोर है जम्हूरियत कहां
अब तक नहीं मिला हमें अधिकार, देखिए

'हिमकर. तो अपने हाल पे हंसता हुआ मिला
वो कर रहा है दर्द का इजहार, देखिए 

(एक पुरानी रचना नए रूप में)


रहज़न: लुटेरे, शहरयार: शासक, तारीकियां: अँधियारा, तर्जे अमल: कार्य प्रणाली, नमुदार: प्रकट, दम दिलासे: आश्वासन, आजार: दु:खी, गर्दे सफ़र: सफर की थकान, फ़ाक़ों : भूख, रहवार: मुसाफिर  


© हिमकर श्याम

Sunday 19 January 2014

मायावी जाल

(चित्र गूगल से साभार) 


हजारों मृगतृष्णा का जाल
बिछा है हमारे आसपास
न चाहते हुए हम फंस जाते हैं   
इस मायावी जाल में                                                  
बच नहीं पाते हैं मोह जाल से
भागते रहते हैं ताउम्र
व्यर्थ लालसाओं के पीछे
हमारी हसरतें, हमारी चाहतें,
हर्ष, पीड़ा, घृणा और प्रेम 
उलझे हैं सब इस जाल में

चाहते हैं हम जालों को काटना 
और निकल आना बाहर
मगर लाचार हैं हम
हर तरफ घेरे है
हमारी असमर्थताएं

निरर्थक लगता है जीवन
अर्थहीन लगता है सबकुछ
जब टूटने लगता है सारा गुरूर
तलाशते हैं तब हम अपना वजूद

© हिमकर श्याम