Friday 11 April 2014

मौन रहे जो आप



आफ़त  में है ज़िन्दगी, उलझे हैं हालात।
कैसा यह जनतंत्र है, जहाँ न जन की बात।।

नेता जी हैं मौज में, जनता भूखी सोय।
झूठे वादे सब करें, कष्ट हरे ना कोय।।

मौसम देख चुनाव का, उमड़ा जन से प्यार।
बदला-बदला लग रहा, फिर उनका व्यवहार।।

राजनीति के खेल में, सबकी अपनी चाल।
मुद्दों पर हावी दिखे, जाति-धर्म का जाल।।

आँखों का पानी मरा, कहाँ बची अब शर्म।
सब के सब बिसरा गए, जनसेवा का कर्म।।

जब तक कुर्सी ना मिली, देश-धर्म से प्रीत।
सत्ता आयी हाथ जब, वही पुरानी रीत।।

एक हि साँचे में ढले, नेता पक्ष-विपक्ष।
मिलकर लूटे देश को, छल-प्रपंच में दक्ष।।

लोकतंत्र के पर्व का, खूब हुआ उपहास।
दागी-बागी सब भले, शत्रु हो गए खास।।

रातों-रात बदल गए, नेताओं के रंग।
कलतक जिसके साथ थे, आज उसी से जंग।।

मौका आया हाथ में, दूर करें संताप।
फिर बहुत पछताएंगे, मौन रहे जो आप।।

जाँच-परख कर देखिए, किसमें कितना खोट।
सोच-समझ कर दीजिए, अपना-अपना वोट।।

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)



Tuesday 1 April 2014

है अक्स अपना देख के हैरान आदमी





पाया न अपने आप को पहचान आदमी।
है अक्स अपना देख के हैरान आदमी।

बस दूसरों के ऐब दिखाता है हर कोई,
कब झाँकता है अपना गिरेबान आदमी।

दुनिया सिमट गई है मगर दूरियाँ बढ़ीं,
है दोस्तों के हाल से अनजान आदमी।

इंसानियत से दूर है इंसान इन दिनों,
ईमान बेच कर  बना शैतान आदमी।

होता है रोज़ -रोज़ मुसीबत का सामना,
अनजान मरहलों से परेशान आदमी।

बे-वज़्ह जल रही है गरीबों की बस्तियाँ,
मत सेंक इसमें हाथ ए' नादान आदमी।

आती नहीं कहीं से ठहाकों की अब सदा,
होंटो पे नक़ली ओढ़ ली मुस्कान आदमी।

हिंदू भी ख़ौफ़ में हैं, मुसलमाँ भी ख़ौफ़ में,
दैर-ओ-हरम में छुप गया हैवान आदमी।

दैरो-हरम : मंदिर-मस्जिद  

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)