Tuesday 1 April 2014

है अक्स अपना देख के हैरान आदमी





पाया न अपने आप को पहचान आदमी।
है अक्स अपना देख के हैरान आदमी।

बस दूसरों के ऐब दिखाता है हर कोई,
कब झाँकता है अपना गिरेबान आदमी।

दुनिया सिमट गई है मगर दूरियाँ बढ़ीं,
है दोस्तों के हाल से अनजान आदमी।

इंसानियत से दूर है इंसान इन दिनों,
ईमान बेच कर  बना शैतान आदमी।

होता है रोज़ -रोज़ मुसीबत का सामना,
अनजान मरहलों से परेशान आदमी।

बे-वज़्ह जल रही है गरीबों की बस्तियाँ,
मत सेंक इसमें हाथ ए' नादान आदमी।

आती नहीं कहीं से ठहाकों की अब सदा,
होंटो पे नक़ली ओढ़ ली मुस्कान आदमी।

हिंदू भी ख़ौफ़ में हैं, मुसलमाँ भी ख़ौफ़ में,
दैर-ओ-हरम में छुप गया हैवान आदमी।

दैरो-हरम : मंदिर-मस्जिद  

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

23 comments:

  1. बहुत खूब बहुत ही लाज़वाब अभिव्यक्ति आपकी। बधाई

    एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''मार डाला हमें जग हँसाई ने''

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    1. शुक्रिया आपका अभी जी…

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  2. आपके एक एक बात से सहमत हूँ
    उम्दा अभिव्यक्ति के लिए बधाई

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    1. हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया...

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  3. आज-कल के हालात पर चोट करती सुंदर रचना.

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना आदरणीय धन्यवाद ! I.A.S.I.H ( हिंदी जानकारियाँ )
    हिंदी ब्लॉग जगत में एक नए ब्लॉग की शुरुवात हुई है कृपया आप सब से विनती है कि एक बार अवश्य पधारें , व अपना सुझाव जरूर रक्खें , धन्यवाद ! ~ ज़िन्दगी मेरे साथ - बोलो बिंदास ! ~ ( एक ऐसा ब्लॉग -जो जिंदगी से जुड़ी हर समस्या का समाधान बताता है )

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  5. क्या बात है। लाजवाब रचना।

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    1. आपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई...स्वागत है आपका ...

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    1. आपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई...स्वागत है आपका ...

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  7. होता है रोज़-रोज़ मुसीबत से सामना
    अपनी ही आदतों से परेशान आदमी
    लाजवाब शेर है हिमकर जी ... पूरी गज़ल नायाब नगीनों से सजी है ...
    बहुत उम्दा ...

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    1. शेर और ग़ज़ल को इनायत फरमाने के लिए शुक्रिया...

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  8. हर तरफ बन गयी हैं ये नफ़रत की सरहदें
    जाने कहाँ छिपा है मेहरबान आदमी
    ....लाज़वाब...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...हरेक शेर बहुत उम्दा...

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  9. राजीव जी, चर्चा मंच पर मेरी रचना लेने के लिए तहे दिल से शुक्रिया...

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  10. शुक्रिया आपका …

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  11. आपका बहुत बहुत शुक्रिया...

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  12. जाने कहाँ गयी वो कहकहो की महफिलें
    फिर ढूंढता फिरे है वो मुस्कान आदमी
    सच!

    बहुत उम्दा लिखा है!!

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  13. आपका बहुत बहुत शुक्रिया...

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  14. ☆★☆★☆



    हर तरफ बन गयी हैं ये नफ़रत की सरहदें
    जाने कहाँ छिपा है मेहरबान आदमी

    लड़ते हैं भाई-भाई सियासत के खेल में
    क्यूं बन गया है हिन्दू-मुसलमान आदमी

    वाह ! वाऽह…!


    पूरी ग़ज़ल अच्छी है
    आदरणीय हिमकर श्याम जी

    आपके ब्लॉग पर गीत दोहे भी पढ़े हैं
    श्रेष्ठ सुंदर छंदबद्ध सृजन के लिए साधुवाद !

    मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार


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    1. आप पहली बार ब्लॉग पर आये, स्वागत, आपकी टिप्पणी ने नई ऊर्जा भर दी. ब्लॉग से जुड़ने और अपना कीमती समय देने के लिए आभार व धन्यवाद

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  15. बढ़िया लिखा है.. शुभकामनाएं..

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    1. आपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई...स्वागत है आपका ...

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