Saturday 28 February 2015

रंग नहीं होली के रंगों में

        (चित्र गूगल से साभार)

फिर बौरायी मंजरियों के बीच
कोयल कूकी,
दिल में एक टीस उठी
पागल भोरें मंडराने लगे,
अधखिली कलियों के अधरों पर
पलाश फूटे या आग
किसी मन में,
चूड़ी की है खनक कहीं,
कहीं थिरकन है अंगों में,
ढोल-मंजीरों की थाप
गूंजती है कानों में
मौसम हो गया है अधीर,
बिखर गये चहूं ओर रंग-अबीर
पर बिन तुम्हारे
रंग नहीं होली के रंगों में |

© हिमकर श्याम


Saturday 14 February 2015

इश्क़ की पनाहों में

सफ़र का लुत्फ़ मिले ज़िंदगी की राहों में
चलूँ जो साथ तेरे इश्क़ की पनाहों में

महक उठी हैं फिजाएँ किसी के आने से
बहार बन के समाया है कौन चाहों में

असर कुछ ऐसा हुआ उनके शोख जलवों का
उन्हीं का अक्स बसा जाता है निगाहों में

गिला रहा न कोई अब हयात से हमको
सिमट के आ गईं ख़ुशियाँ तमाम बाँहों में 

ख़बर थी अपनी, न थी फ़िक्र कोई दुनिया की
सुकून इतना मिला हमको जल्वागाहों में
  
किसी ने याद किया आज मुझको शिद्दत से
खड़ीं हैं साथ मेरे हिचकियाँ गवाहों में

घटा जो आज तेरी सांसों को छुके उट्ठी
वो बरसे आके मेरे दिल की प्यासी राहों में

शुमार इश्क़ न हो खानुमा ख़राबों में
करे न ज़िक्र कोई प्यार का गुनाहों में 

कभी तो हाल सुनो पास आके 'हिमकर' के
बदल न जाए सदा उसकी सर्द आहों में 

© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)


Wednesday 4 February 2015

संघर्षधर्मिता

तेज धूप का
सामना कर झुलसने
लगती है हरी घास
पल-पल सहती है
घोर यातनाएँ
लगातार रौंदे जाने से
वह पड़ जाती है जर्द
अपना अस्तित्व
बचाने की कोई सूरत
नजर नहीं आती
फिर भी वह जूझती
पूरे सामर्थ्य के साथ

अंततः उसकी
धमनियों में
बची रहती है
धुंधली सी संभावना
फिर से उभरती है
नई हरीतिमा
और
मुश्किलों से वहीँ फिर से
पनप उठती है हरियाली
जो गवाह है उसकी
संघर्षधर्मिता की
यही है सच्चाई
जीजिविषा कभी मरती नहीं
उदाहरण है सामने

निष्ठुर पतझड़ के बाद
फिर आता है वसंत
झुलसती गर्मी के बाद
घिरता है मेघ
होती है झमाझम वृष्टि
ठूंठ शाखों पर
फूटती हैं नयी कोंपलें
फैल उठती है हवा में
मिट्टी की सोंधी महक
(कैंसर से जूझते हुए)


कैंसर से डरे नहीं, लड़ें 


© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)