Sunday 21 June 2015

पिता महान

[पितृ दिवस पर]

1.
पिता का साया
तरुवर की छाया
पिता सुरक्षा

2.
ऊँगली थामे
कठिन डगर पे
राह दिखाये

3.
धीर-गंभीर
कठोर शख्सियत
कोमल दिल

4.
पिता का साथ
सुखद अहसास
पिता विश्वास

5.
जीवनदाता
सुसंस्कार सिखाता
पिता प्रेरणा

6.
बच्चों खातिर
तकलीफ़ें सहता
चैन गँवाता

7.
पिता का त्याग
वात्सल्य अनुराग
अतुलनीय

8.
पिता सहारा
शक्ति और संबल
मार्गदर्शक

9.
पिता की डांट
सख्ती अनुशासन
निश्छल प्यार

10.
सबकी इच्छा
अपना जो समझे
क्यों मोहताज़

11.
पिता महान
न भूलो अहसान
करो सम्मान

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


Saturday 13 June 2015

ढूंढते फिर रहे सब ख़ुशी का पता


बाँधते हैं उमीदें, रखें हौसला
हमने सीखी परिंदों से ऐसी अदा

साथ लेकर इरादे सफ़र में चलो
राह रोके खड़ीं है मुखालिफ़ हवा

जिस तरफ देखिए हैं उधर ग़मज़दा
ढूंढते फिर रहे सब ख़ुशी का पता

यह तो अच्छा हुआ जो भुलाया उन्हें
उनको फुर्सत कहाँ जो रखें वास्ता

हम न समझे कभी ये सियासी जुबाँ
तर्जुमा अलहदा और बातें जुदा

मिट गयी वो बगावत की तहरीर सब
बिक गए चंद सिक्कों में जो रहनुमा

सूझता ही नहीं अब कोई रास्ता
है नज़र में मेरे बस ख़ला ही ख़ला

काम आती नहीं है दवा या दुआ
संगदिल ज़िंदगी पर अभी आसरा

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


Friday 5 June 2015

नदी की व्यथा


(पर्यावरण दिवस पर एक पुरानी रचना)
(एक)
शहर की बेचैन भीड़ में
गुम हो गयी है वो नदी
जो सदियों से बहती थी
यहां के वन-प्रांतरों में
यहां के परिवेश में
सिखाती थी अनुशासन
बाँटा करती थी संस्कार।

नदी जो साक्षी रही है
हर्ष-विषाद, सुख-दुख,
संघर्षों और विकास की
समृद्धि और ऐश्वर्य की
खड़ी है आज अकेली
निस्तब्ध और उदास
बेबस ओर लाचार।

वरदान थी शहर की
वाशिंदों की खातिर
आंचल में लाती थी
शीपी, शंख और रेत
रंग-बिरंगी मछलियाँ 
बाँहों में भर के प्यार।

बेच रहे हैं नदी को
सैकड़ों गिरोहबंद
दलाल और ठेकेदार
बेच रहे हैं सपने
फैला रहे हैं भ्रमजाल
समृद्धि का कारोबार।

भूल गये हैं लोग
नदी से अपने रिश्ते
जिसके किनारों पर
मिलता था मोक्ष
बांटा करती थी जो नदी
छोटी-छोटी परेशानियाँ 
क्षणभंगुर लालसाओं की
बन गयी है शिकार।

जहां जिसने भी चाहा
नदी के सीने पर
बना लिया आशियाँ 
खटाल और तबेला
उड़ेलने लगे गंदगी
प्रदूषण व अतिक्रमण से
छीन ली गयी पवित्रता
मिलने लगा तिरस्कार।

जीवित है नदी इस आशा में
लौटेंगे वे लोग किनारों पे
भूल बैठे हैं जो नदी से रिश्ते
छोड़ गये है उसे अकेले
रूकेंगे वे हुक्मरान भी जो
गुजरते हैं उसके ऊपर से
लाल बत्तीवाली गाड़ियों में
देखेंगे उसकी दुर्दशा
लौटेगी फिर उसकी धार।


(दो)

चमकीली बस्तियों की
कोलाहल और भीड़ में
खो गयी है जो नदी
हो रही है उसकी तलाश
नदी जो बहती थी
यहां युगों-युगों से
कभी थी जीवन-रेखा
कोलाहल और भीड़ में
खो चुकी थी पहचान
खो चुकी थी अहमियत।

अनजानी लालसाओं
बेचैन सपनों के पीछे
भूल गये थे जो लोग
नदी से अपने रिश्ते
किनारों से अपना नाता
समझने लगे हैं वे
नदी की सार्थकता
जागने लगी है
उनकी सोई चेतना
ढ़ूंढ रहे हैं वे नदी को।

लौटेगी फिर नदी की धार
लौटेगी खोई पवित्रता
होगा अब पुनरू़द्धार
मापी जाएगी सीमा
हटेगा अतिक्रमण
होने लगी है बहस
बनने लगा है कारवाँ।



© हिमकर श्याम
(तस्वीरें सानंद मनु की)