Saturday 31 October 2015

ज़िन्दगी दुश्वार लेकिन प्यार कर

मुश्किलों को हौसलों से पार कर
ज़िन्दगी दुश्वार लेकिन प्यार कर

सामने होती मसाइल इक नयी
बैठ मत जा गर्दिशों से हार कर

बात दिल में जो दबी कह दे उसे
इश्क़ है उससे अगर इज़हार कर

नफरतों का बीज कोई बो रहा
दोस्तों से यूँ न तू तक़रार कर

ढूंढता दिल चन्द खुशियों की घड़ी
अब ग़मों पर खुद पलट कर वार कर

दूर मंज़िल हैं अभी रस्ता कठिन
ज़िन्दगी की राह को हमवार कर

अपने ख़्वाबों की निगहबानी करो 
फायदा क्या ख़्वाहिशों को मार कर

है हमें लड़ना मुसलसल वक़्त से
हर घड़ी हासिल तज़ुर्बा यार कर


-हिमकर श्याम

(चित्र संयोजन : रोहित कृष्ण)

Tuesday 27 October 2015

नेह लुटाती चाँदनी


शीतलउज्जवल रश्मियाँबरसे अमृत धार।
नेह लुटाती चाँदनीकर सोलह श्रृंगार।।

शरद पूर्णिमा रात मेंखिले कुमुदनी फूल।
रास रचाए मोहनाकालिंदी के कूल।।

सोलह कला मयंक की, आश्विन पूनो ख़ास।
उतरी धरा पर माँ श्री, आया कार्तिक मास।।

लक्ष्मी की आराधना, अमृतमय खीर पान।
पूर्ण हो मनोकामना, बढे मान-सम्मान।। 

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

Wednesday 21 October 2015

विजय पर्व पर कीजिए, पापों का संहार


जगत जननी जगदम्बिकासर्वशक्ति स्वरूप।
दयामयी दुःखनाशिनीनव दुर्गा नौ रूप।। 
शक्ति पर्व नवरात्र मेंशुभता का संचार।
भक्तिपूर्ण माहौल सेहोते शुद्ध विचार ।। 
जयकारे से गूंजतादेवी का दरबार।
माता के हर रूप कोनमन करे संसार।।
माँ अम्बे के ध्यान सेमिट जाते सब कष्ट।
रोग शोक संकट सभीहो जाते हैं नष्ट।।


कामक्रोधमदमोहछलअन्यायअहंकार।
रावण की सब वृत्तियाँमन के विषम विकार।।
विजय पर्व पर कीजिएपापों का संहार।
रावण भीतर है छुपाकरिए उस पर वार।। 

[दुर्गा पूजा, विजयादशमी और दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ]


©हिमकर श्याम 


(चित्र गूगल से साभार)





Thursday 1 October 2015

बुलंदी पे कहां कोई ठहरता है


बुलंदी पे कहाँ कोई ठहरता है
फ़लक से रोज ये सूरज उतरता है

गरूर उसके डुबो देंगे उसे इक दिन
नशा शोहरत का चढ़ता है, उतरता है

दबे कितने त्वारीखों के सफ़हों में
भला किसको ज़माना याद रखता है

यहां कितनों को देखा ख़ाक में मिलते
कोई नायाब ही गिर कर सँभलता है

न देखा हो अगर तो देखलो आकर
पलों में रुख़ सियासत का बदलता है

न है तुमको अभी अहसास तूफ़ां का
शजर तो आँधियों में ही उजड़ता है

भरोसा दोस्ती का अब नहीं हमको
जरूरत जब पड़े लहज़ा बदलता है

कि उसके लफ़्ज़ भी नश्तर से चुभते हैं
ज़ुबां से जहर जब कोई उगलता है

चला है ज़ोर किसका वक़्त के आगे
कि मुठ्ठी से हरिक लम्हा फिसलता है

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)