Thursday 26 November 2015

याद आती है बेचैन हरिक साज़ की सूरत

26/11 के बाद ये ग़ज़ल कही थी, आपसब के हवाले 

याद आती है बेचैन हरिक साज़ की सूरत
वो शाम कयामत की, जले ताज़ की सूरत

थी भीड़ मजारों पर, चिताएँ भी थीं रौशन
आबाद अभी दिल में है जाबांज़ की सूरत

दम भरते थे आज़ाद फिजाँ की जो परिंदे
हैरान हैं अब देख के शहबाज़ की सूरत

आवारा हवाओं का कहाँ ठौर ठिकाना
ये गर्द बताती है दगाबाज़ की सूरत

जिस राह चले साथ चले खौफ़ बमों का
हर रोज़ नई होती है इस साज़ की सूरत

बेकैफ़ खड़ीं आज दर-ओ-बाम दिवारें
बेचैन निगाहों में है हमराज़ की सूरत

हर सिम्त से उठ्ठी है एहतजाज़ की सदा
इस शोर में दिखती नहीं एजाज़ की सूरत   

माहौल अभी ठीक नहीं, तल्ख़ है मौसम
नाशाद नज़र आती है दमसाज़ की सूरत 

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)




Wednesday 11 November 2015

उम्मीदों के दीप जलाते हैं


रूठी ख़ुशियों को फिर आज़ मनाते हैं 
झिलमिल उम्मीदों के दीप जलाते हैं 

जिनके घर से दूर अभी उजियारा है
उनके चौखट पर इक दीप जलाते हैं 

जगमग जगमग लहराते अनगिन दीपक 
निष्ठुर तम हम कुछ पल को बिसराते हैं 

रिश्तों में कितनी कड़वाहट दिखती है 
फिर अपनेपन का वो भाव जगाते हैं 

घनघोर अमावस से लड़ता है दीपक 
पुरनूर चिराग़ों से रात सजाते हैं 

शुभ ही शुभ हो, जीवन में अब मंगल हो 
मिलजुल दीपों को त्योहार मनाते हैं 


[दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ]

© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)



Tuesday 3 November 2015

ज़िंदगी

[आज इस 'ब्लॉगके दो वर्ष पूरे हो गए। इन दो वर्षों में आप लोगों का जो स्नेह और सहयोग मिलाउसके लिए तहे दिल से शुक्रिया और आभार। यूँही आप सभी का स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहे यही चाह है। इस मौक़े पर एक कविता आप सब के लिए सादर,] 


पहली बारिश में
चट्टानों के नीचे
दबी हुई बीजों से
फूटते हैं अंकुर

ज़र्ज़र इमारतों की
भग्न दीवारों के
बीच उग आते हैं
पीपल और बरगद

वासंती छुवन से
निष्प्राण शाखों पे
फूटने लगती हैं
नई-नई कोंपलें

हर रोजहर रात
जोशों-खरोस से
जूझते हैं मौत से 
सैकड़ों कीट-पतंगे

ईटों-गारों के बीच
पलती हैं चींटियाँ
तपती मरूभूमि में
खिलता है कैक्टस

मौत की वीरानियों में
करवट लेता है जीवन  
अथाह पीड़ा के बाद
मुस्कुराती है ज़िंदगी।

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)