Thursday 3 November 2016

ज़िंदगी तुझसे निभाना आ गया

[आज इस 'ब्लॉगके तीन वर्ष पूरे हो गए। इन तीन वर्षों में आप लोगों का जो स्नेह और सहयोग मिलाउसके लिए तहे दिल से शुक्रिया और आभार। यूँही आप सभी का स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहे यही चाह है। इस मौक़े पर एक ग़ज़ल आप सब के लिए सादर,] 



ज़िंदगी तुझसे निभाना आ गया
हौसलों को आज़माना आ गया

रफ्ता-रफ्ता ज़िन्दगी कटती गयी
और ग़म से दिल लगाना आ गया

सहते सहते दर्द की आदत पड़ी
चोट खाकर मुस्कुराना आ गया

तितलियाँ भी बाग़ में आने लगीं
देखिए मौसम सुहाना आ  गया

मुद्दतों  के बाद उनसे हम  मिले
लौट के गुजरा ज़माना आ गया

हो रहे कमज़ोर रिश्ते आजकल
देखिए  कैसा  ज़माना आ गया

हार पर  आँसू  बहाते  कब तलक
जीत को मकसद बनाना आ गया

हो  गयी नज़रें इनायत आपकी
हाथ में जैसे खज़ाना आ गया

फितरतें हिमकर सियासी हो गई
बात तुमको भी बनाना आ गया

© हिमकर श्याम 

[तस्वीर : फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की] 

Saturday 15 October 2016

शरद पूनो (सेदोका)


शरद पूनो
कौमुदी अमी धारा
झड़ते परिजात
अमानी कृष्ण
महारास की बेला  
मनमोहक निशा 

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)



Saturday 17 September 2016

फुहारें गुनगुनाती हैं, शज़र भी झूमता देखो



हवाओं में तरन्नुम  हैचमन गाने लगा  देखो
फुहारें  गुनगुनाती  हैं, शजर भी झूमता देखो


घटाएँ झूम कर  बरसीं, छमाछम नाचतीं  बूँदें
गुलाबी ये फ़ज़ा देखो, नशा बरसात का देखो


बुझाती तिश्नगी धरती, दिखातीं बिजलियाँ जल्वा
किसानों  की  ख़ुशी  देखो, मयूरा  नाचता  देखो


ज़मीं लगती नहाई सीनदी लहरा रही  जैसे
सुहाना हो गया मंज़र, बड़ी दिलकश फ़ज़ा देखो


क़हर  ढाती  हैं बरसातें, यहाँ कच्चे  मकानों पर
भरा है हर तरफ़ पानी, ख़फ़ा लगता ख़ुदा देखो


भिगोती रात भर हमको तुम्हारी याद की बारिश
कलेजे  को  चुभोती है, उमड़ती  यह घटा देखो



टपकती छत ये रोती है मुक़द्दर पर तेरे 'हिमकर'
हुआ दुश्वार अब जीना, बतायें हाल क्या  देखो 



© हिमकर श्याम


[तस्वीर : पुरातत्वविद डॉ हरेंद्र प्रसाद सिन्हा जी की ]

Monday 15 August 2016

न कुछ बदला न आए दिन सुहाने


वही हालात हैं अब तक पुराने 
 कुछ बदला  आए दिन सुहाने 

किसे मतलब है ज़ख़्मों से हमारे 
कोई आता नहीं मरहम लगाने 

हमारी आँख के आँसू  सूखे
चले आए नये ग़म फिर रुलाने

कोई वादा नहीं उसने निभाया
उसे अब याद आते सौ बहाने

लिए उम्मीद हम बैठे अभी तक
वो लायेंगे विदेशों से ख़ज़ाने 

ज़रा सय्याद से बचना परिंदों
चला है जाल लेके फिर फँसाने

जुनूँ हिम्मत भरोसा है ख़ुदी पे 
चला जुगनू अँधेरे को हराने

जो हँस के कोई मिलता किसी से 
बना देती है दुनिया सौ फ़साने

ये दुनिया ख़ुदग़र्ज़ क्यूँ हो गई है
कोई आता नहीं मिलने मिलाने

रहेगी साथ कब तक बेबसी ये 
नहीं आता कोई यह भी बताने

भला क्यूँ फेर ली आँखें सभी ने 
तुम्हारे लद गए हिमकर ज़माने

© हिमकर श्याम

[तस्वीर फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]

Thursday 14 July 2016

शाखों से पत्ता झड़ता है



अक्सर ही  ऐसा  होता है
सुकरात यहाँ पे मरता है

बूढ़ा दरख़्त यह कहता है
दिन  जैसे तैसे  कटता है


पाँवों  में  काँटा  चुभता  है
लेकिन चलना तो पड़ता है


मोल नहीं  है सच का  कोई
पर खोटा सिक्का चलता है


सपने सारे  बिखरे जब से
दिल चुपके चुपके रोता है


आया है पतझड़ का मौसम 
शाखों  से  पत्ता   झड़ता  है


कोई  नग़मा फिर छेड़ो  तुम
कुछ सुनने को मन करता है


साँसों का चलना है जीवन
पल भर  का  सब नाता है


हँसने  लगता है रब यारो
जब कोई बच्चा हँसता है


आफ़त सर पे रहती हिमकर
पर हँस  कर दुःख  सहता है 
 


एक शेर यूँ भी 

याद बहुत आता है गब्बर
जब  कोई  बच्चा रोता है


© हिमकर श्याम


[तस्वीर : पुरातत्वविद डॉ हरेंद्र प्रसाद सिन्हा जी की ]

Friday 1 July 2016

चल सको तो चलो साथ मेरे उधर



हमसफ़र भी नहीं है न है राहबर
चल सको तो चलो साथ मेरे उधर

मेरे हालात से तुम रहे बेख़बर
हाल कितना बुरा है कभी लो ख़बर

साथ कुछ देर मेरे जरा तो ठहर
मान जा बात मेरी ओ जाने ज़िगर

याद तेरी सताती हमें रात भर
जागते जागते हो गयी फिर सहर

दिल पे करते रहे वार पे वार तुम
और चलाते रहे अपनी तीरे नज़र

तुमको जीभर के हमने न देखा कभी
वस्ल की साअतें थीं बड़ी मुख़्तसर

भूल सकता नहीं उनको हिमकर कभी
ज़ख्म दिल के भला कैसे जाएँगे भर


© हिमकर श्याम



[तस्वीर : फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]


Sunday 5 June 2016

यहाँ मौसम बदलते जा रहे हैं




हरे जंगल जो कटते जा रहे हैं
यहाँ मौसम बदलते जा रहे हैं

किधर जाएँ यहाँ से अब परिंदे
नशेमन सब उजड़ते जा रहे हैं

नयेपन की हवा ऐसी चली है
उसी रंगत में ढलते जा रहे हैं

नई तहज़ीब में ढलता ज़माना
सभी ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं

सिखाते हैं सलीक़ा दीये हमको
हवाओं में जो जलते जा रहे हैं

कहाँ फ़ुर्सत उन्हें जो बात सुनते

वो अपनी धुन में चलते जा रहे हैं


पतंगों की तरह 'हिमकर' तसव्वुर

फ़लक पर ख़ूब उड़ते जा रहे हैं


© हिमकर श्याम


[तस्वीर फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]

Sunday 8 May 2016

रब से ऊपर होतीं माएँ


दिल की बातें पढ़तीं माएँ
दर्द भले हम लाख छुपाएँ

रहती हरदम साथ दुआएँ
हर लेती सब कष्ट बलाएँ

नाम कई एहसास वही है
इक जैसी होती सब माएँ

फ़ीके लगते चाँद सितारे
माँ के जैसा कौन बताएँ

सारी पीड़ा हँस के सहती
कर देती माँ माफ़ ख़ताएँ

माँ का रिश्ता सबसे प्यारा
रब  से  ऊपर होतीं माएँ

ममता का कोई मोल नहीं
कैसे माँ का क़र्ज़ चुकाएँ

© हिमकर श्याम

(तस्वीर और रेखाचित्र मेरे भाँजे अंशुमान आलोक की)

Sunday 24 April 2016

मुकम्मल बादशाई चाहता हूँ


मिटाना हर बुराई चाहता  हूँ 
ज़माने की भलाई चाहता हूँ

तेरे दर तक रसाई चाहता हूँ
मैं  तुझसे आशनाई चाहता हूँ

लकीरों से नहीं हारा अभी मैं 
मुक़द्दर से लड़ाई  चाहता  हूँ

दिलों के दरमियाँ बढ़ती कुदूरत
मैं थोड़ी अब  सफाई चाहता हूँ

हुआ जाता हूँ मैं मुश्किल पसंदी
नहीं  अब  रहनुमाई  चाहता  हूँ

पलटकर  वार  करना  है  जरूरी
मैं अब  जोर आज़माई चाहता हूँ

तेरी खामोशियाँ खलने  लगी है
कहूँ क्या लब कुशाई चाहता हूँ

खुदा से और क्या माँगू भला मैं 
ग़मों  से कुछ  रिहाई चाहता हूँ

गदाई अब नहीं मंज़ूर हिमकर
मुकम्मल  बादशाई चाहता हूँ

© हिमकर श्याम