Thursday 14 July 2016

शाखों से पत्ता झड़ता है



अक्सर ही  ऐसा  होता है
सुकरात यहाँ पे मरता है

बूढ़ा दरख़्त यह कहता है
दिन  जैसे तैसे  कटता है


पाँवों  में  काँटा  चुभता  है
लेकिन चलना तो पड़ता है


मोल नहीं  है सच का  कोई
पर खोटा सिक्का चलता है


सपने सारे  बिखरे जब से
दिल चुपके चुपके रोता है


आया है पतझड़ का मौसम 
शाखों  से  पत्ता   झड़ता  है


कोई  नग़मा फिर छेड़ो  तुम
कुछ सुनने को मन करता है


साँसों का चलना है जीवन
पल भर  का  सब नाता है


हँसने  लगता है रब यारो
जब कोई बच्चा हँसता है


आफ़त सर पे रहती हिमकर
पर हँस  कर दुःख  सहता है 
 


एक शेर यूँ भी 

याद बहुत आता है गब्बर
जब  कोई  बच्चा रोता है


© हिमकर श्याम


[तस्वीर : पुरातत्वविद डॉ हरेंद्र प्रसाद सिन्हा जी की ]

Friday 1 July 2016

चल सको तो चलो साथ मेरे उधर



हमसफ़र भी नहीं है न है राहबर
चल सको तो चलो साथ मेरे उधर

मेरे हालात से तुम रहे बेख़बर
हाल कितना बुरा है कभी लो ख़बर

साथ कुछ देर मेरे जरा तो ठहर
मान जा बात मेरी ओ जाने ज़िगर

याद तेरी सताती हमें रात भर
जागते जागते हो गयी फिर सहर

दिल पे करते रहे वार पे वार तुम
और चलाते रहे अपनी तीरे नज़र

तुमको जीभर के हमने न देखा कभी
वस्ल की साअतें थीं बड़ी मुख़्तसर

भूल सकता नहीं उनको हिमकर कभी
ज़ख्म दिल के भला कैसे जाएँगे भर


© हिमकर श्याम



[तस्वीर : फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]