हिज्र  की रात तो ढली ही नहीं
वस्ल की  आरज़ू गई ही नहीं
मेरे दिल में थी बस तेरी चाहत
आरजू  और कोई थी  ही नहीं
मैंने तुझको  कहाँ  नहीं  ढूँढा
यार तेरी ख़बर मिली ही नहीं
इश्क़ से थी हयात में लज़्ज़त
ज़िन्दगी बाद तेरे जी ही नहीं
मिन्नतें इल्तिज़ा  न कम की थी
बात लेकिन कभी सुनी ही नहीं 
काश कोई सुराख़ मिल जाये
बंद कमरे में  रोशनी ही नहीं
उससे कोई  उमीद मत रखना
वो भरोसे का आदमी ही नहीं
हर जगह देखता तेरी सूरत
फ़िक़्र से दूर तू गई ही नहीं
इक अज़ब सा सुकूत है  हिमकर
बात बिगड़ी तो फिर बनी ही नहीं
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
![शीराज़ा [Shiraza]](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHlTlgfra8mr_WMUE0ZuO_wX8IURGkJNe2nvpSRsJkeGhyphenhyphenF9w9jl9uzq5YLVqMftwgK57KlSjaIUq9ClwF3Nnns8thhEDmEuEX6fPnArCDwvODZrW4hGkQ6jZBM4C_YI7F9T2e-348TRc/s1600-r/sep+22.jpg) 

 
Beautiful ...👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ख़ूब आदरणीय
ReplyDeleteसादर
धन्यवाद
Deleteबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुन्दर!
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत ही खूबसूरत शेर हैं ...
ReplyDeleteकमाल की अदायगी ...
बहुत शुक्रिया
Deleteलाजवाब गजल....
ReplyDeleteवाह!!!
धन्यवाद
Deleteबहुत ही खूबसूरत अल्फाजों में पिरोया है आपने इसे... बेहतरीन गजल
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
Deleteधन्यवाद
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