Monday, 4 April 2022

गमक उठे हैं साल वन

 



ढाक-साल सब खिल गए, मन मोहे कचनार।

वन प्रांतर सुरभित हुए, वसुधा ज्यों गुलनार।।


गमक उठे हैं साल वन, झरते सरई फूल।

रंग-गंध आदिम लिए, मौसम है अनुकूल।।


मीन- केकड़ा का यहाँ, पुरखों जैसा मान।

दोनों  के  सहयोग  से,  पृथ्वी  का निर्माण।।


निखरा-निखरा रूप है, बाँटे स्नेह अथाह।

धरती दुल्हन सूर्य की, रचने को है ब्याह।।


मटके का जल देख कर, वर्षा का अनुमान।

युगों पुरानी यह प्रथा, आदिम रीति विधान।।


उत्सव का माहौल है,  शहर हो कि हो गाँव।

ढोल-  नगाड़े  बज रहे,  थिरक रहे हैं पाँव।।


■ हिमकर श्याम

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-04-2022) को चर्चा मंच       "अट्टहास करता बाजार"    (चर्चा अंक-4392)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    
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  2. सुन्दर लिखा... पूरी कहानी

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  3. बहार के मौसम का सुंदर वर्णन

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  4. वाह!खूबसूरत सृजन ।

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  5. सुन्दर प्रस्तुति

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  6. रीति और परम्परा का उसके जीवंत रूप में सुन्दर
    शब्द-विधान से प्रस्तुति अत्यंत सुंदर बन पड़ी है !

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