Sunday, 14 October 2018

विवशता



एक के बाद एक
फँसते जा रहे हैं हम
समस्याओं के,
दुर्भेद चक्रव्यूह में

चाहते हैं,
चक्रव्यूह से बाहर निकल,
मुक्त हो जाएँ हम भी
रोज प्रत्यंचा चढ़ जाती है,
लक्ष्य बेधन के लिए
लेकिन असमर्थताएँ
परास्त कर जाती हैं
हर तरफ से।

शायद-
हो गये हैं हम भी,
अभिमन्यु की तरह।
काश,
इससे निकलने का भेद भी
बतला ही दिया होता
अर्जुन ने ।

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-10-2018) को "सब के सब चुप हैं" (चर्चा अंक-3126) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. दीपोत्सव की अनंत मंगलकामनाएं !!

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