Thursday, 14 February 2019

हिज्र की रात तो ढली ही नहीं



हिज्र  की रात तो ढली ही नहीं
वस्ल की  आरज़ू गई ही नहीं

मेरे दिल में थी बस तेरी चाहत
आरजू  और कोई थी  ही नहीं

मैंने तुझको  कहाँ  नहीं  ढूँढा
यार तेरी ख़बर मिली ही नहीं

इश्क़ से थी हयात में लज़्ज़त
ज़िन्दगी बाद तेरे जी ही नहीं

मिन्नतें इल्तिज़ा  न कम की थी
बात लेकिन कभी सुनी ही नहीं 

काश कोई सुराख़ मिल जाये
बंद कमरे में  रोशनी ही नहीं

उससे कोई  उमीद मत रखना
वो भरोसे का आदमी ही नहीं

हर जगह देखता तेरी सूरत
फ़िक़्र से दूर तू गई ही नहीं

इक अज़ब सा सुकूत है  हिमकर
बात बिगड़ी तो फिर बनी ही नहीं


© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


14 comments:

  1. बहुत ख़ूब आदरणीय
    सादर

    ReplyDelete
  2. बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...

    ReplyDelete
  3. बहुत ही खूबसूरत शेर हैं ...
    कमाल की अदायगी ...

    ReplyDelete
  4. लाजवाब गजल....
    वाह!!!

    ReplyDelete
  5. बहुत ही खूबसूरत अल्फाजों में पिरोया है आपने इसे... बेहतरीन गजल

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद

      Delete

आपके विचारों एवं सुझावों का स्वागत है. टिप्पणियों को यहां पर प्रकट व प्रदर्शित होने में कुछ समय लग सकता है.