घाटी में षड्यंत्र से, दहला हिंदुस्तान
सहमे पेड़ चिनार के, जन्नत लहूलुहान
बिना युध्द मारे गये, अपने सैनिक वीर
आहत पूरा देश है, हृदय-हृदय में पीर
पत्नी बेसुध है पड़ी,बच्चा करे विलाप
अम्मा छाती पीटती, मौन खड़ा है बाप
रक्त वर्ण झेलम हुई, क्षत-विक्षत है लाश
कितनी गहरी वेदना, फफक रहा आकाश
निगरानी की चूक से, आतंकी आघात
हमले की फ़िराक़ में, दुश्मन थे तैनात
घात नहीं यह जंग है, अब तो हो प्रतिकार
साजिश में तल्लीन जो, उनपर भी हो वार
कब तक दूध पिलाएगा, बुरे इरादे भाँप
डँसते हैं हर बार ही, आस्तीन के साँप
ग़म गुस्सा आक्रोश है, पीड़ा अतल अथाह
राजनीति करती कहाँ, इन सब की परवाह
कश्मीरी से बैर क्यों, आख़िर क्या है दोष
उन्मादी इस दौर में, बचा रहे कुछ होश
दहशतगर्दों के लिए, क्या मजहब क्या जात
अगर हुकूमत ठान ले, क्या उनकी औक़ात
© हिमकर श्याम
(चित्र unsplash से साभार)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-02-2019) को "समय-समय का फेर" (चर्चा अंक-3257) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद संवेदनशील रचना।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
बहुत ही सुन्दर आदरणीय |
ReplyDeleteनमन अमर वीर जवानों को
सादर
कब तक दूध पिलाएगा, बुरे इरादे भाँप
ReplyDeleteडँसते हैं हर बार ही, आस्तीन के साँप
बहुत ही हृदयस्पर्शी सटीक अभिव्यक्ति.....
सार्थक और सामयिक रचना
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी सटीक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसटीक और सामयिक अभुव्यक्ति ... मन के आक्रोश, विवशता और बेबसी को बाखूबी दोहों के सहारे लिखा है ... हर मन की पुकार लिखी है ...
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