Saturday 6 December 2014

किसे सुनाएँ पीर


जन-जन में है बेबसी, बदतर हैं  हालात। 
कैसा अबुआ राज है, सुने न कोई बात।।  

उजड़ गयीं सब बस्तियाँ, घाव बना नासूर। 
विस्थापन का दंश हम, सहने को मजबूर।। 

जल, जंगल से दूर हैं, वन के दावेदार।
रोजी-रोटी के लिए, छूटा घर संसार।। 

अब तक पूरे ना हुए, बिरसा के अरमान। 
शोषण-पीड़ा है वही, मिला नहीं सम्मान।।  

अस्थिरता, अविकास से, बदली ना तक़दीर। 
बुनियादी सुविधा नहीं, किसे सुनाएँ पीर।।

सामूहिकता, सादगी और प्रकृति के गान। 
नए दौर में गुम हुई, सब आदिम पहचान।। 

भ्रष्ट व्यवस्था ने रचे, नित नए कीर्तिमान।
सरकारें आयीं-गयीं, चलती रही दुकान।। 

© हिमकर श्याम  
(चित्र गूगल से साभार)


झारखण्ड के हालात बदलें, वोट जरूर करें


16 comments:

  1. अस्थिरता, अविकास से, बदली ना तक़दीर।
    बुनियादी सुविधा नहीं, किसे सुनाएँ पीर।..
    सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी दोहे ... हर दोहा एक नयी पीड़ा की दास्ताँ कह रहा है ...

    ReplyDelete
  2. मार्मिक दोहे ...बहुत शानदार

    ReplyDelete
  3. समसामयिक रचना....
    आज के दौर की यही स्थिति है...

    ReplyDelete
  4. bahut sunder steek abhivyakti

    ReplyDelete
  5. उजड़ गयीं सब बस्तियाँ, घाव बना नासूर।

    विस्थापन का दंश हम, सहने को मजबूर।।
    ...वाह..बहुत सटीक और सार्थक दोहे...

    ReplyDelete
  6. क्या बात है , शुभ रात्रि।

    ReplyDelete
  7. प्रासंगिक और प्रभावी अभिव्यक्ति ।
    हर पंक्ति हकीकत बयां करती है

    ReplyDelete
  8. झारखंड के दर्द को बखूबी बयां करती हुई एक अच्छी रचना ...भ्रष्ट व्यवस्था ही दोषी है.
    आज के नतीजों को देख कर लगता है अब जो नयी सरकार बनेगी उससे कुछ उम्मीद तो है.

    ReplyDelete

आपके विचारों एवं सुझावों का स्वागत है. टिप्पणियों को यहां पर प्रकट व प्रदर्शित होने में कुछ समय लग सकता है.