Monday 9 December 2013

यादें और आईना




यादें आईना है
बीती जिन्दगी का
मौसम-बेमौसम
सुबह या शाम
जब होते हैं हम
तन्हा, अकेले
करवटें लेती हैं
अक्सर-यादें
अलग-अलग रंगों में रंगे
अतीत के तमाम रंग
बिखर जाते हैं
हमारे आसपास

आंखों के सामने
उभरने लगती हैं
एक-एक कर
जिन्दगी के
बही-खाते में दर्ज
सुख-दुख की लकीरें  
जानी-अनजानी चाहतें
पल-पल बदलते
रिश्तों की शक्लें


अतीत के अंधेरों से
निकल आते हैं बाहर
तमाम अर्थहीन चेहरे
कौन –अपना?
कौन –पराया?
बताती हैं यादें
कोई दुराव-छिपाव
नहीं रहता शेष  
यादें तब
नहीं रहती सिर्फ यादें
बन जाती हैं आईना
जिन्दगी के तमाम
उतारों-चढावों से
कराती है हमे रूबरू
कहे -अनकहे एहसास
निभे-अननिभे वादे
बुझी-अनबूझी प्यास
आधे-अधूरे ख्वाब
सब कुछ नजर आता है
साफ-साफ, हुबहू

कितना साम्य है
यादों और आईनों में
दिखायी तो देता हैं
उनमें सबकुछ
मगर हाथ नहीं आता
कुछ भी
यादें और आईना
दोनों ही-
खींच देती हैं अक्सर
बेबसी की लकीरें
मुश्किल है जैसे
आईने को झुठलाना
असंभव है वैसे
यादों को भुला पाना

हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)

  

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