Thursday, 4 February 2016

शेष है स्वपन


गुज़र रहा है
लम्हा-लम्हा
उड़ा जा रहा
हाथों से क्षण।

थमतीं नहीं  
चलती हुईं  
घड़ियाँ
हाए, कैसी ये
मजबूरियाँ
रीत रहा मन।

क्यूं बैठ रोता
सूख रहा
समय का सोता
छीन रही उमर 
शेष है स्वपन।


© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-02-2016) को "घिर आए हैं ख्वाब" (चर्चा अंक-2244) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आभारी हूँ आ.शास्त्री जी

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  2. वाह ... सही है समय बीत रहा है ... फिसल रहा है ... बैठे रहने से कुछ नहीं होने वाला ...

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  3. समय के साथ सच में बहुत कुछ रीतता जाता है .... सुंदर रचना

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  4. समय रेत सा फिसल रहा है -- भावपूर्ण रचना
    सादर

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  5. बहुत ही सुंदर रचना की प्रस्तुति। भाई साहब आपके दूसरे ब्लाग पर कमेंट का कहीं ऑप्शन दिखाई नहीं पड़ रहा है। कृप्या उसे सेट करने का कष्ट करें।

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  6. वक़्त को रोकना बहुत मुश्किल है बहुत सुंदर रचना

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