Sunday, 13 March 2016

तमाशा जात मज़हब का खड़ा करना बहाना है



तमाशा जात मज़हब काखड़ा करना बहाना है
सभी  नाकामियाँ अपनी  उन्हें  यूँ  ही छुपाना है

ढ़ले सब एक  साँचे मेंनहीं  कोई अलग लगता
मुखौटों  में  छुपे  चेहरे,  ज़माने को  दिखाना है

है सारा खेल कुरसी कासमझते क्यूँ नहीं लोगो
लगा के आग नफ़रत कीउन्हें बस वोट पाना है

बदल जाती हैं सरकारें मगर सब कुछ वही रहता
हमें  तो  पाँच  सालों  में  मुक़द्दर  आजमाना  है

हमारे मुल्क़ की हालत बना दी क्या सियासत ने
सियासी  पैंतरे   सारे,  हमी   पर  आज़माना  है

अभी तो राख़ में चिंगारियाँ बाक़ी बहुत हिमकर
जलेंगी बस्तियाँ कितनीहमें मिलकर बुझाना है

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)



8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-03-2016) को "एक और ईनाम की बलि" (चर्चा अंक-2281) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 14 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बिजय बाबू, बैंक और बेहद बुरी ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. आखिरी शेर ने हर बात कह दी.वाह!

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  5. सुंदर प्रस्तुति

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  6. Bahut sahi kaha aapne. Apni kami ko chupane ke liye.
    Thanks & Welcome to my new blog post...

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  7. सच कहा आपने। सुलग रही चिंगारियां.., भड़का कर आग.., जलाएंगी वो गरीबों की बस्तियां.., इस आग को हम सभी को मिलकर ही बुझाना है। नहीं तो हो जाएगा हमारा प्यारा वतन खाक.. हम यदि रोते रहे यूं ही बेबसी के आंसू पूरी रात।

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  8. तीसरा और आखरी शेर तो जैसे आज की हकीकत को बयान कर रहा है ...
    हालात बद से बत्तर होते जा रहे हैं ...

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