तमाशा जात मज़हब का, खड़ा करना बहाना है सभी नाकामियाँ अपनी उन्हें यूँ ही छुपाना है
ढ़ले सब एक साँचे में, नहीं कोई अलग लगता मुखौटों में छुपे चेहरे, ज़माने को दिखाना है
है सारा खेल कुरसी का, समझते क्यूँ नहीं लोगो लगा के आग नफ़रत की, उन्हें बस वोट पाना है
बदल जाती हैं सरकारें मगर सब कुछ वही रहता हमें तो पाँच सालों में मुक़द्दर आजमाना है
हमारे मुल्क़ की हालत बना दी क्या सियासत ने सियासी पैंतरे सारे, हमी पर आज़माना है
अभी तो राख़ में चिंगारियाँ बाक़ी बहुत हिमकर जलेंगी बस्तियाँ कितनी, हमें मिलकर बुझाना है
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-03-2016) को "एक और ईनाम की बलि" (चर्चा अंक-2281) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 14 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बिजय बाबू, बैंक और बेहद बुरी ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआखिरी शेर ने हर बात कह दी.वाह!
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteBahut sahi kaha aapne. Apni kami ko chupane ke liye.
ReplyDeleteThanks & Welcome to my new blog post...
सच कहा आपने। सुलग रही चिंगारियां.., भड़का कर आग.., जलाएंगी वो गरीबों की बस्तियां.., इस आग को हम सभी को मिलकर ही बुझाना है। नहीं तो हो जाएगा हमारा प्यारा वतन खाक.. हम यदि रोते रहे यूं ही बेबसी के आंसू पूरी रात।
ReplyDeleteतीसरा और आखरी शेर तो जैसे आज की हकीकत को बयान कर रहा है ...
ReplyDeleteहालात बद से बत्तर होते जा रहे हैं ...