अक्सर ही ऐसा होता है
सुकरात यहाँ पे मरता है
बूढ़ा दरख़्त यह कहता है
दिन जैसे तैसे कटता है
पाँवों में काँटा चुभता है
लेकिन चलना तो पड़ता है
मोल नहीं है सच का कोई
पर खोटा सिक्का चलता है
सपने सारे बिखरे जब से
दिल चुपके चुपके रोता है
आया है पतझड़ का मौसम
शाखों से पत्ता झड़ता है
कोई नग़मा फिर छेड़ो तुम
कुछ सुनने को मन करता है
साँसों का चलना है जीवन
पल भर का सब नाता है
हँसने लगता है रब यारो
जब कोई बच्चा हँसता है
आफ़त सर पे रहती हिमकर
पर हँस कर दुःख सहता है
एक शेर यूँ भी
याद बहुत आता है गब्बर
जब कोई बच्चा रोता है
© हिमकर श्याम
[तस्वीर : पुरातत्वविद डॉ हरेंद्र प्रसाद सिन्हा जी की ]
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-07-2016) को "आये बदरा छाये बदरा" (चर्चा अंक-2404) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
wah himkar ji kya khoob likha hai.. aur aakhri sher to kya kaha. aapke blog par aakar prasannta hui.. kuch naya mila. bahut khoob.
ReplyDeleteBadhiya..
ReplyDeleteसुप्रभात ! चलना जबतक जिन्दगी है
ReplyDeleteबहुत खूब ! सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूब ... और उस पुछल्ले ने तो मुस्कान ला दी होठों पर ...
ReplyDeleteहर शेर जबरदस्त ...
Bahut sundar
ReplyDeleteवाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteपाँवों में काँटा चुभता है
ReplyDeleteलेकिन चलना तो पड़ता है
मोल नहीं है सच का कोई
पर खोटा सिक्का चलता है
सच्ची बात।
बढिया गज़ल।
ReplyDeleteबहुत खूब हिमकर जी ।
ReplyDeleteमोल नहीं है सच का कोई
ReplyDeleteपर खोटा सिक्का चलता है
सपने सारे बिखरे जब से
दिल चुपके चुपके रोता है
आया है पतझड़ का मौसम
शाखों से पत्ता झड़ता है
कोई नग़मा फिर छेड़ो तुम
कुछ सुनने को मन करता है
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय
जबरदस्त शेर ...
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