उलझ कर गर्दिशों में रह गई है
भला यह ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है
कोई मरता है मर जाये उन्हें क्या
हुक़ूमत को किसी से क्या पड़ी है
हुआ आज़ाद कहने को वतन यह
मगर क़ायम अभी तक बेबसी है
फ़क़त धोका निगाहों का उजाला
चिराग़ों के तले ही तीरग़ी है
ये किसने दी हवा फिर रंजिशों को
फ़ज़ा में किस क़दर नफ़रत घुली है
कोई हिन्दू, कोई मुस्लिम यहाँ पर
न मिलता ढूंढ़ने से आदमी है
कई कमज़ोरियाँ लेकर चली थी
यहाँ ज़म्हूरियत औंधे पड़ी है
भला यह ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है
कोई मरता है मर जाये उन्हें क्या
हुक़ूमत को किसी से क्या पड़ी है
हुआ आज़ाद कहने को वतन यह
मगर क़ायम अभी तक बेबसी है
फ़क़त धोका निगाहों का उजाला
चिराग़ों के तले ही तीरग़ी है
ये किसने दी हवा फिर रंजिशों को
फ़ज़ा में किस क़दर नफ़रत घुली है
कोई हिन्दू, कोई मुस्लिम यहाँ पर
न मिलता ढूंढ़ने से आदमी है
कई कमज़ोरियाँ लेकर चली थी
यहाँ ज़म्हूरियत औंधे पड़ी है
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
वाह ! क्या बात है ! एक से बढ़कर एक शेर ! लाजवाब ग़ज़ल ! बहुत खूब आदरणीय ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-08-2017) को "सुख के सूरज से सजी धरा" (चर्चा अंक 2700) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
स्वतन्त्रता दिवस और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दिल का दर्द शब्दों में कैसे बयान होता है,अभी देख लिया एक से एक गहरे अर्थो वाली पंक्तिया ....
ReplyDeleteग़ज़ब के शेर ... सच है कोई नहि सुन रहा आज ... स्वतंत्रता का मतलब समझने में फ़ेल हो गए हैं सब ...
ReplyDeleteखूबसूरत शेर
ReplyDeleteलाज़वाब,गहन भाव लिये आपकी रचना।बहुत सुंदर।
ReplyDeleteनंगा सच बयान करती ग़ज़ल
ReplyDeleteकटु सत्य व्यक्त करती सुंदर रचना।
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