Wednesday, 16 August 2017

हुक़ूमत को किसी से क्या पड़ी है





उलझ  कर  गर्दिशों  में  रह गई है
भला  यह ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है

कोई मरता है  मर जाये  उन्हें क्या
हुक़ूमत को  किसी  से क्या पड़ी है

हुआ आज़ाद  कहने को वतन यह
मगर  क़ायम अभी  तक बेबसी है

फ़क़त  धोका  निगाहों का उजाला
चिराग़ों   के   तले   ही   तीरग़ी   है

ये किसने दी हवा फिर रंजिशों  को
फ़ज़ा में किस क़दर नफ़रत घुली है

कोई हिन्दू, कोई  मुस्लिम यहाँ  पर
   मिलता   ढूंढ़ने  से  आदमी  है

कई  कमज़ोरियाँ  लेकर  चली  थी
यहाँ   ज़म्हूरियत   औंधे   पड़ी  है

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


8 comments:

  1. वाह ! क्या बात है ! एक से बढ़कर एक शेर ! लाजवाब ग़ज़ल ! बहुत खूब आदरणीय ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-08-2017) को "सुख के सूरज से सजी धरा" (चर्चा अंक 2700) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    स्वतन्त्रता दिवस और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. दिल का दर्द शब्दों में कैसे बयान होता है,अभी देख लिया एक से एक गहरे अर्थो वाली पंक्तिया ....

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  4. ग़ज़ब के शेर ... सच है कोई नहि सुन रहा आज ... स्वतंत्रता का मतलब समझने में फ़ेल हो गए हैं सब ...

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  5. खूबसूरत शेर

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  6. लाज़वाब,गहन भाव लिये आपकी रचना।बहुत सुंदर।

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  7. नंगा सच बयान करती ग़ज़ल

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  8. कटु सत्य व्यक्त करती सुंदर रचना।

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