दर्द का रिश्ता भला ढोता है क्या
छोड़ दे माजी के ग़म, रोता है क्या
ज़िक्र क्यों नाकामियों का कर रहा
जो हो गया वो हो गया रोता है क्या
आदमी बोता है जो वह काटता
जान कर भी ज़ह्र तू बोता है क्या
दाग़ दामन के कभी मिटते नहीं
हाए अब तू अश्क़ से धोता है किया
अहले दिल से पूछ ले क़ीमत कभी
इश्क़ दौलत है बड़ी, खोता है क्या
एक दिन सब कुछ फ़ना हो जाएगा
फिर किसी की मौत पर रोता है क्या
कौन जाने कब ये किस्सा ख़त्म हो
तेरा किस्सा मुख़्तसर होता है क्या
रफ़्ता-रफ़्ता उम्र हिमकर ढल रही
बैठे- बैठे वक़्त तू खोता है क्या
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, डॉ॰ वर्गीज़ कुरियन - 'फादर ऑफ़ द वाइट रेवोलुशन' “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteवाह्ह...बहुत खूब👌👌
ReplyDeleteलाजवाब रचना....
ReplyDeleteवाह!!!
रफ़्ता-रफ़्ता उम्र हिमकर ढल रही
ReplyDeleteबैठे- बैठे वक़्त तू खोता है क्या
....वाह्ह बहुत खूब :)