Sunday 24 November 2013

बेगाने अपने आप से क्यों हो रहे हैं लोग




बेगाने अपने आप से क्यों हो रहे हैं लोग
हैं मंजिलें करीब, कहां खो रहे हैं लोग

इन्सानियत का रोज जनाजा निकालकर,
हैवानियत के बीज यहाँ बो रहे हैं लोग

सपनों की वादियों-सी थी सर सब्ज़ जिन्दगी,
किसने लगायी आग बहुत रो रहे हैं लोग

मुरझा गए हैं फूल, सिसकने लगा चमन,
अब खेत-खेत तल्ख ज़हर बो रहे हैं लोग

चेहरे हैं गर्द-गर्द नहीं इसका कुछ ख्याल 
हाँ, लेकिन आइने को बहुत धो रहे हैं लोग 

खुशियां तलाशते हैं गुनाहों की भीड़ में
अपना जमीर बेच अभी सो रहे हैं लोग

हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)






3 comments:

  1. very nice,keep it up.it
    baboo

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  2. शुक्रिया आपका...

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  3. चेहरे हैं गर्द-गर्द नहीं इसका कुछ ख्याल
    हाँ, लेकिन आइने को बहुत धो रहे हैं लोग
    बहुत ही उम्दा ... गहरी बात कह दी इस शेर के माध्यम से ... जमाने का चलन दिखाती है ये ग़ज़ल ...

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