आफ़त में है ज़िन्दगी, उलझे हैं हालात।
कैसा यह जनतंत्र है, जहाँ
न जन की बात।।
नेता जी हैं मौज में,
जनता भूखी सोय।
झूठे वादे सब करें, कष्ट
हरे ना कोय।।
मौसम देख चुनाव का, उमड़ा
जन से प्यार।
बदला-बदला लग रहा, फिर
उनका व्यवहार।।
राजनीति के खेल में, सबकी
अपनी चाल।
मुद्दों पर हावी दिखे,
जाति-धर्म का जाल।।
आँखों का पानी मरा, कहाँ
बची अब शर्म।
सब के सब बिसरा गए,
जनसेवा का कर्म।।
जब तक कुर्सी ना मिली,
देश-धर्म से प्रीत।
सत्ता आयी हाथ जब, वही
पुरानी रीत।।
एक हि साँचे में ढले,
नेता पक्ष-विपक्ष।
मिलकर लूटे देश को, छल-प्रपंच
में दक्ष।।
लोकतंत्र के पर्व का, खूब
हुआ उपहास।
दागी-बागी सब भले, शत्रु
हो गए खास।।
रातों-रात बदल गए, नेताओं
के रंग।
कलतक जिसके साथ थे, आज
उसी से जंग।।
मौका आया हाथ में, दूर
करें संताप।
फिर बहुत पछताएंगे, मौन
रहे जो आप।।
जाँच-परख कर देखिए, किसमें
कितना खोट।
सोच-समझ कर दीजिए,
अपना-अपना वोट।।
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
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बहुत सुन्दर। पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ अच्छा लगा।
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद…
Deleteजब तक कुर्सी ना मिली, देश-धर्म से प्रीत।
ReplyDeleteसत्ता आयी हाथ जब, वही पुरानी रीत।।
sahi kaha himkar ji
आपका बहुत बहुत शुक्रिया...
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ReplyDeleteनिर्जल उतरू होत जल पौन हिन का पौन ।
निर्जन उतरू होत जन कोलाहल का मौन ।१४४५।
भावार्थ : -- निर्जल का उत्तर जल होता है निर्वात का उत्तर वात होती है । निर्जन का उत्तर जन होता है, और कोलाहल का उत्तर मौन होता है, शब्द नहीं ॥
शुक्रिया आपका …
Deleteबहुत सुंदर और यथार्थ.
ReplyDeleteहार्दिक आभार...
Deleteसभी पक्तियां लाजवाब.......उम्दा..............भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र पर चोट करती हुई रचना........उम्दा!
ReplyDeleteहार्दिक आभार...
Deleteनेता जी हैं मौज में, जनता भूखी सोय।
ReplyDeleteझूठे वादे सब करें, कष्ट हरे ना कोय ...
सही दोहे लाजवाब ... राजनीती और जन सरोकार लिए बहुत उत्तम ...
आपका बहुत बहुत शुक्रिया...
Deleteआपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (20-04-2014) को ''शब्दों के बहाव में'' (चर्चा मंच-1588) पर भी होगी!
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर
मेरी रचना को चर्चा में शामिल करने के लिए धन्यवाद.
DeleteBehtreen Panktiyan.... Shubhkamnayen
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई...स्वागत है आपका ...
Deleteजाँच-परख कर देखिए, किसमें कितना खोट।
ReplyDeleteसोच-समझ कर दीजिए, अपना-अपना वोट।।
अपने बहुत ही अच्छी तरह से और सयुक्त सब्दो को सजोया है मन पर्फुलित होगया यहाँ आके
आपका बहुत बहुत शुक्रिया..
Deleteजाँच-परख कर देखिए, किसमें कितना खोट।
ReplyDeleteसोच-समझ कर दीजिए, अपना-अपना वोट।।
यह है सौ बातों की एक बात !
हर दोहा गागर में सागर समान है और सामायिक भी.
[देर से ब्लॉग पर आने के लिए माफ़ी चाहती हूँ ब्लॉग की फीड ही नहीं दिखी थी ]
देर से ही सही, पर आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया मिली... ह्रदय से धन्यवाद।
Deleteबहुत सुन्दर, सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteशुक्रिया आपका...
Deleteसार्थक और सटीक रचना, बधाई.
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई...स्वागत है आपका ...
Deleteप्रिय हिमकर जी काश जनता एक बार जागृत हो कर वोट कर दे तो ......सुन्दर सन्देश और व्यंग्य
ReplyDeleteभ्रमर ५
हार्दिक आभार...
Deleteउम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@मतदान कीजिए
हार्दिक आभार...
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ReplyDeleteमत दायन सुवारथ कर भई अएसी कुरीत ।
गुंठनबती चढ़ी चिता प्रीतम की कर प्रीत ।१४७४।
भावार्थ : -- स्वार्थीयों के हाथ ने मत दान को ऐसा कुरीति में परिवर्तित कर दिया । जैसे इस देश में कभी घूँघट व सती की कुप्रथा थी । घुंघटवालियाँ कहती थीं मरूँ या जिऊँ मैं तो अपने प्रीतम के साथ ही बरूंगी ॥ अब दृश्य थोड़ा उलटा हो गया है वाली का स्थान वाला ने ले लिया है कहते हैं फूटूं या साबुत रहूं मैं तो मत देऊंगा ही ॥
अच्छा है...
Deleteबेहतरीन रचना..
ReplyDeleteशुक्रिया आपका...
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