Thursday, 1 May 2014

खानाबदोशी का रंग





दिन रात है भागदौड़
व्यर्थ में मची है होड़
यथार्थ और भ्रम का
यह कैसा निरर्थक नृत्य
न खुशी है, न उमंग।

न हैं पवित्र मान्यताएँ
न निश्छल भावनाएँ
न सुख है, न संवेदना
क्षणभंगुर सपनों में
बदल गया जीने का ढंग।

अंतहीन हैं अभिलाषाएँ
बेमानी हैं प्रतिस्पर्धाएँ
दम घुटाती हैं हवाएँ
दिशा-दिशा में चढ़ गया
खानाबदोशी का रंग।

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)

16 comments:

  1. उनका दर्द वे ही जानते हैं जो इस दौर से गुजर रहे है वे सरकारें क्या जाने` वे नेता क्या जाने जो ए सी में बैठते हैं व करों में घूमते हैं. अच्छी अभिव्यक्ति

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  2. याथार्थ और भ्रम के बीच बड़ा फासला होता है .जिसके बीच भटकता हुआ ,क्षणभंगुर सपनो में जीता आज का मनुष्य खानाबदोश सा ही हो गया है !बहुत अच्छी भावों में भीगी अभिव्यक्ति ..

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  3. अंतहीन हैं अभिलाषाएँ
    बेमानी हैं प्रतिस्पर्धाएँ ..

    मनुष्य जानता है सब कुछ फिर भी इन्ही बातों में उल्झा राहत है ... यहितो नियति ही जो इस जीवन चक्र में उलझाए रखती है ...

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  4. उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@मतदानकीजिए
    नयी पोस्ट@सुनो न संगेमरमर

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  5. उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@मतदान कीजिए
    नयी पोस्ट@सुनो न संगेमरमर

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  6. ☆★☆★☆



    दिन रात है भागदौड़
    व्यर्थ में मची है होड़
    यथार्थ और भ्रम का
    यह कैसा निरर्थक नृत्य
    न खुशी है, न उमंग।

    अच्छी भावाभिव्यक्ति !

    बधाई एवं साधुवाद !


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  7. सच! कुछ नजर नहीं आता है..

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  8. व्यर्थ में मची है होड़
    यथार्थ और भ्रम का
    यह कैसा निरर्थक नृत्य
    न खुशी है, न उमंग।

    अनुभूतियों के झंझावात में ऐसे ही कसमसाती है जिन्दगी, फिर यही से सृजन फूटता है

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    1. आपकी प्रतिक्रिया पाकर खुशी हुई...स्वागत है आपका ...

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  9. सच है भाई बहुत आपाधापी है व्यर्थ निरर्थ काश सब ढंग से और कारगर हो ..
    भ्रमर ५

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