Wednesday, 4 February 2015

संघर्षधर्मिता

तेज धूप का
सामना कर झुलसने
लगती है हरी घास
पल-पल सहती है
घोर यातनाएँ
लगातार रौंदे जाने से
वह पड़ जाती है जर्द
अपना अस्तित्व
बचाने की कोई सूरत
नजर नहीं आती
फिर भी वह जूझती
पूरे सामर्थ्य के साथ

अंततः उसकी
धमनियों में
बची रहती है
धुंधली सी संभावना
फिर से उभरती है
नई हरीतिमा
और
मुश्किलों से वहीँ फिर से
पनप उठती है हरियाली
जो गवाह है उसकी
संघर्षधर्मिता की
यही है सच्चाई
जीजिविषा कभी मरती नहीं
उदाहरण है सामने

निष्ठुर पतझड़ के बाद
फिर आता है वसंत
झुलसती गर्मी के बाद
घिरता है मेघ
होती है झमाझम वृष्टि
ठूंठ शाखों पर
फूटती हैं नयी कोंपलें
फैल उठती है हवा में
मिट्टी की सोंधी महक
(कैंसर से जूझते हुए)


कैंसर से डरे नहीं, लड़ें 


© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


15 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता है .उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिये.दुःख के बाद सुख आता है.
    कैंसर से लड़ने की हिम्मत रखने वाले एक योद्धा आप भी हैं ,आप की जिजीविषा को सलाम !ईश्वर आप की हिम्मत बनाये रखे ,हमेशा मुस्कराते रहें .शुभकामनाएँ!

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    1. आपकी टिप्पणी ने मेरा उत्साह कई गुना बढ़ा दिया। आप सब की दुआओं की बदौलत ही मुझे लड़ने की हिम्मत मिली है, धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर एवं प्रेरणास्पद.ईश्वर इसी तरह हिम्मत दे.
    नई पोस्ट : ओऽम नमः सिद्धम

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  4. प्रकृति का नियम है
    विकास-विनाश की प्रक्रिया.

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  5. ये तो जीवन चक्र है ... अवसाद में घिर जाने के बाद स्वतः ही आशा की किरनें जागृत होने लगती हैं ... उनको सुनने की जरूरत है ... आशा के संचार की जरूरत है ...

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  6. बहुत ही उम्‍दा कविता।

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  7. एक सार्थक सत्य..विकास और विनाश का यह चक्र सदैव चलता रहता है...

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  8. बेहतरीन रचना।

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  9. @ AWADHESH KUMAR DUBEY ji, राजीव कुमार झा जी, Pratibha Verma ji, मन के - मनके जी, Digamber Naswa ji, कहकशां खान जी, Kailash Sharma ji, Ankur Jain जी,
    हौसला अफ़जाई के लिए आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया !

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  10. बहुत ही सुन्दर सार्थक रचना....

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  11. आपकी यह कविता उन सभी मनों को शक्ति दे रही है जो जीवन की विषम परिस्थियों से घबराकर डर जाते हैं. जो ये समझते हैं कि उजालों से अलग किसी भी राह का मतलब जीवन नहीं है. जो ये समझते हैं कि पराजय के बाद जीवन में संभावनाओं का अंत हो जाता है. १९४० के दशक में तपेदिक का वही भय था जो आज कैंसर का है. पर तपेदिक का आज वो रोग नहीं रहा. पिछले दस वर्षों में जो शोध कैंसर पर हुआ है और जो ज्ञान बढ़ा है, हमें पूरी उम्मीद हैं कि कैंसर वैसा रोग नहीं रहेगा अगले दस बरस में. एक दो नयी दवाइयां क्लिनिकल ट्रायल के दौर से गुज़र रही हैं जिससे हम सभी को बहुत उम्मीदें हैं. बहरहाल, आपकी यह कविता आशा का संचार कर रही है और मन को संबल दे रही है.

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    1. कविता का मर्म समझनेके लिए धन्यवाद...इससे किसी का हौसला बढ़ा तो समझूंगा कि लिखना सार्थक हुआ।

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