मिटाना हर बुराई चाहता हूँ
ज़माने की भलाई चाहता हूँ
तेरे दर तक रसाई चाहता हूँ
लकीरों से नहीं हारा अभी मैं
मुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ
दिलों के दरमियाँ बढ़ती कुदूरत
मैं थोड़ी अब सफाई चाहता हूँ
हुआ जाता हूँ मैं मुश्किल पसंदी
नहीं अब रहनुमाई चाहता हूँ
पलटकर वार करना है जरूरी
मैं अब जोर आज़माई चाहता हूँ
तेरी खामोशियाँ खलने लगी है
कहूँ क्या लब कुशाई चाहता हूँ
खुदा से और क्या माँगू भला मैं
ग़मों से कुछ रिहाई चाहता हूँ
गदाई अब नहीं मंज़ूर हिमकर
मुकम्मल बादशाई चाहता हूँ
© हिमकर श्याम
लकीरों से नहीं हारा अभी मैं
ReplyDeleteमुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ
हर शेर का अंदाजे बयाँ अपनी बात को प्रखरता से रखता हुआ है ... लाजवाब ग़ज़ल ...
शुक्रिया आपका
Deleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-04-2016) को "मुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ" (चर्चा अंक-2324) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभारी हूँ
Deleteखुदासे और क्या मांगूं .....य़े लाइन मुझे बहुत सुंदर लगी । आप लिखते ही बहुत अच्छा है ।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteख़ूब ..
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteमुकम्मल बादशाही चाहता हूँ आपकी बहुत ही रोचक रचना है यह, आपकी इस रचना के लिए आपको बधाई .....ऐसी रचना अब आप शब्दनगरी पर भी प्रकाशित कर सकतें है व अन्य लेखकों कि रचनाओ का आनंद भी ले सकतें हैं.......
ReplyDeleteसूचना के लिए धन्यवाद। यह जानकर अति प्रसन्नता हुई।
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