हरे जंगल जो कटते जा रहे हैं यहाँ मौसम बदलते जा रहे हैं
किधर जाएँ यहाँ से अब परिंदे नशेमन सब उजड़ते जा रहे हैं
नयेपन की हवा ऐसी चली है उसी रंगत में ढलते जा रहे हैं
नई तहज़ीब में ढलता ज़माना सभी ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं
सिखाते हैं सलीक़ा दीये हमको हवाओं में जो जलते जा रहे हैं
कहाँ फ़ुर्सत उन्हें जो बात सुनतेवो अपनी धुन में चलते जा रहे हैं
पतंगों की तरह 'हिमकर' तसव्वुरफ़लक पर ख़ूब उड़ते जा रहे हैं © हिमकर श्याम
[तस्वीर : फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "विश्व पर्यावरण दिवस - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 07/06/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
किधर जाएँ यहाँ से अब परिंदे
ReplyDeleteनशेमन सब उजड़ते जा रहे हैं ...
आपकी चिंता जाएज है ... जित तेज़ी से पेड़ कट रहे हैं ... पर्यावरण का नुक्सान हो रहा है ... एक दिन इंसान भी यही सोचेगा अब कहाँ जाऊं ...
बहुत खूब आदरणीय
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।
वाह ! वाह ! बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteवाह ! , मंगलकामनाएं आपको.....
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और प्रभावी रचना की प्रस्तुति। आज बहुत दिनों के बाद ऐसा लिंक दिखाई पड़ा जिसके जरिए शीराजा पर आना हुआ। पर आते ही तबियत खुश हो गई। साहित्यक रचनाओं से दिमाग को बहुत सुकून मिलता है। अच्छी रचना के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ।
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