(चित्र गूगल से
साभार)
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हजारों मृगतृष्णा का जाल
बिछा है हमारे आसपास
न चाहते हुए हम फंस जाते
हैं
इस मायावी जाल
में
बच नहीं पाते हैं मोह जाल
से
भागते रहते हैं ताउम्र
व्यर्थ लालसाओं के पीछे
हमारी हसरतें, हमारी चाहतें,
हर्ष, पीड़ा, घृणा और प्रेम
उलझे हैं सब इस जाल में
चाहते हैं हम जालों को
काटना
और निकल आना बाहर
मगर लाचार हैं हम
हर तरफ घेरे है
हमारी असमर्थताएं
निरर्थक लगता है जीवन
अर्थहीन लगता है सबकुछ
जब टूटने लगता है सारा गुरूर
तलाशते हैं तब हम
अपना वजूद
© हिमकर श्याम
सांसरिक मोह जाल से बच नहीं पाते हैं न चाहते हुए हम इस मायावी जाल में फंस ही जाते हैं...!
ReplyDeleteRECENT POST -: आप इतना यहाँ पर न इतराइये.
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया जी, आपका बहुत बहुत आभार !
Deleteआज के यथार्थ को इंगित करती बहुत प्रभावी रचना...
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया पढ़कर प्रसन्नता हुई. हार्दिक आभार!
Deleteबहुत ही बेहतरीन और प्रभावशाली अभिव्यक्ति...
ReplyDeletehttp://mauryareena.blogspot.in/
हार्दिक आभार :)
Deleteचाहते हैं हम जालों को काटना
ReplyDeleteऔर निकल आना बाहर
मगर लाचार हैं हम
हर तरफ घेरे है
हमारी असमर्थताएं
एक सच्चाई पेश करती कविता … बधाई !!
इस ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया.
Deleteइस मायावी जाल में
ReplyDeleteबच नहीं पाते हैं मोह जाल से
भागते रहते हैं ताउम्र
........... हम अक्सर इस मायावी जाल में फंस ही जाते हैं...!
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद:)
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