Sunday, 19 January 2014

मायावी जाल

(चित्र गूगल से साभार) 


हजारों मृगतृष्णा का जाल
बिछा है हमारे आसपास
न चाहते हुए हम फंस जाते हैं   
इस मायावी जाल में                                                  
बच नहीं पाते हैं मोह जाल से
भागते रहते हैं ताउम्र
व्यर्थ लालसाओं के पीछे
हमारी हसरतें, हमारी चाहतें,
हर्ष, पीड़ा, घृणा और प्रेम 
उलझे हैं सब इस जाल में

चाहते हैं हम जालों को काटना 
और निकल आना बाहर
मगर लाचार हैं हम
हर तरफ घेरे है
हमारी असमर्थताएं

निरर्थक लगता है जीवन
अर्थहीन लगता है सबकुछ
जब टूटने लगता है सारा गुरूर
तलाशते हैं तब हम अपना वजूद

© हिमकर श्याम


10 comments:

  1. सांसरिक मोह जाल से बच नहीं पाते हैं न चाहते हुए हम इस मायावी जाल में फंस ही जाते हैं...!

    RECENT POST -: आप इतना यहाँ पर न इतराइये.

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    1. धीरेन्द्र सिंह भदौरिया जी, आपका बहुत बहुत आभार !

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  2. आज के यथार्थ को इंगित करती बहुत प्रभावी रचना...

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    1. आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर प्रसन्नता हुई. हार्दिक आभार!

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  3. बहुत ही बेहतरीन और प्रभावशाली अभिव्यक्ति...
    http://mauryareena.blogspot.in/

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  4. चाहते हैं हम जालों को काटना
    और निकल आना बाहर
    मगर लाचार हैं हम
    हर तरफ घेरे है
    हमारी असमर्थताएं

    एक सच्चाई पेश करती कविता … बधाई !!

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    1. इस ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया.

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  5. इस मायावी जाल में
    बच नहीं पाते हैं मोह जाल से
    भागते रहते हैं ताउम्र

    ........... हम अक्सर इस मायावी जाल में फंस ही जाते हैं...!

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    1. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद:)

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