Sunday, 5 January 2014

दूरियों का क्यूं भला मातम न हो


दूरियों का क्यूं भला मातम न हो
फ़ासले ऐसे कि शायद कम न हो

कुछ मेरी मजबूरियों का है क़सूर
और तेरी बेरुख़ी भी कम न हो

दर्द ओ ग़म क्या सुनाएं हम उसे
पास जिसके दर्द का मरहम न हो

हमने देखा है दुआओं का असर
क्या करे कोई अगर हमदम न हो

पुरख़तर आता नज़र हर रास्ता
हौसलों में गर हमारे दम न हो

ख़ूब होता है तमाशा ए करम
मुश्किले दुनिया की लेकिन कम न हो

जब तलक चलती हैं सांसे ग़म रहे
कौन है दुनिया में जिसको ग़म न हो

हार का चर्चा भला क्यूंकर करें
हाथ में जो जीत का परचम न हो

तेरी फ़ुरकत अब सही जाती नहीं
बस गिला आंखों से है जो नम न हो

पुरखतर: खतरों भरा, फ़ुरकत : जुदाई

© हिमकर श्याम 

9 comments:

  1. too good writing bhaiya, i have not been able to choose even single line for my favorite as there are mixed emotions in every lines. So this time the whole writing is my choice. Keep writing and posting.

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  2. दर्द ओ ग़म क्या सुनाएं हम उसे
    पास जिसके दर्द का मरहम न हो-------

    जीवन जीने का यथार्थ इसको भोगने की ही नियति है
    मन की गहन अनुभूति
    बहुत खूब
    बधाई
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों

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  3. आप सभी का हार्दिक आभार!

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  4. आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सर,,,, बधाई हो

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