(पर्यावरण दिवस पर एक पुरानी रचना) |
(एक)
शहर की बेचैन भीड़ में
गुम हो गयी है वो नदी
जो सदियों से बहती थी
यहां के वन-प्रांतरों में
यहां के परिवेश में
सिखाती थी अनुशासन
बाँटा करती थी संस्कार।
नदी जो साक्षी रही है
हर्ष-विषाद, सुख-दुख,
संघर्षों और विकास की
समृद्धि और ऐश्वर्य की
खड़ी है आज अकेली
निस्तब्ध और उदास
बेबस ओर लाचार।
वरदान थी शहर की
वाशिंदों की खातिर
आंचल में लाती थी
शीपी, शंख और रेत
रंग-बिरंगी मछलियाँ
बाँहों में भर के प्यार।
बेच रहे हैं नदी को
सैकड़ों गिरोहबंद
दलाल और ठेकेदार
बेच रहे हैं सपने
फैला रहे हैं भ्रमजाल
समृद्धि का कारोबार।
भूल गये हैं लोग
नदी से अपने रिश्ते
जिसके किनारों पर
मिलता था मोक्ष
बांटा करती थी जो नदी
छोटी-छोटी परेशानियाँ
क्षणभंगुर लालसाओं की
बन गयी है शिकार।
जहां जिसने भी चाहा
नदी के सीने पर
बना लिया आशियाँ
खटाल और तबेला
उड़ेलने लगे गंदगी
प्रदूषण व अतिक्रमण से
छीन ली गयी पवित्रता
मिलने लगा तिरस्कार।
जीवित है नदी इस आशा में
लौटेंगे वे लोग किनारों पे
भूल बैठे हैं जो नदी से रिश्ते
छोड़ गये है उसे अकेले
रूकेंगे वे हुक्मरान भी जो
गुजरते हैं उसके ऊपर से
लाल बत्तीवाली गाड़ियों में
देखेंगे उसकी दुर्दशा
लौटेगी फिर उसकी धार।
(दो)
चमकीली बस्तियों की
कोलाहल और भीड़ में
खो गयी है जो नदी
हो रही है उसकी तलाश
नदी जो बहती थी
यहां युगों-युगों से
कभी थी जीवन-रेखा
कोलाहल और भीड़ में
खो चुकी थी पहचान
खो चुकी थी अहमियत।
अनजानी लालसाओं
बेचैन सपनों के पीछे
भूल गये थे जो लोग
नदी से अपने रिश्ते
किनारों से अपना नाता
समझने लगे हैं वे
नदी की सार्थकता
जागने लगी है
उनकी सोई चेतना
ढ़ूंढ रहे हैं वे नदी को।
लौटेगी फिर नदी की धार
लौटेगी खोई पवित्रता
होगा अब पुनरू़द्धार
मापी जाएगी सीमा
हटेगा अतिक्रमण
होने लगी है बहस
बनने लगा है कारवाँ।
© हिमकर श्याम
(तस्वीरें सानंद मनु की)
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हिमकर जी, नदी की व्यथा को बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है आपने ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर भाव.
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteबहुत ही सुन्दर और सत्य
ReplyDeleteधन्यवाद
Delete
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आज विश्व पर्यावरण दिवस है - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ब्लॉग बुलेटिन में इस पोस्ट को शामिल करने के लिये आभार.
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteस्वागत व आभार !!
Deleteचर्चा मंच पर इस पोस्ट को शामिल करने के लिये आभार.
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteस्वागत है आपका...ब्लॉग से जुड़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!!
Deletenadi ke dard ko bhi abhivyakti mil gai hai ...sundar
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteनदी का दर्द बहुत अच्छे तरीके से व्यक्त किया आपने
ReplyDeleteसुन्दर कविताएँ
ReplyDeleteआभार
Deletesunder ... 2012 mein likhi kavita ...patrika mein chhpne ki bdhai .....
ReplyDeleteलंबे अरसे बाद ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर बेहद ख़ुशी हुई, हार्दिक आभार !!
Deleteनदी निरंतर बहती है लोकहित में और हम इंसान जरा भी नहीं सोचते। ।
ReplyDeleteसटीक चित्रण ....
हार्दिक आभार
Deleteनदी की व्यथा को बहुत भावमयी शब्द दिए हैं...एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteनदी की व्यथा का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है आपने, पढ़ते हुए लग रहा था हूबहूब मेरे गांव की नदी हो जैसे, अफ़सोस सालों पहले इसका अस्तित्व भी कुछ इसी तरह समाप्त हो गया था ! कविता के अंत में जो सोई हुई चेतना के फिर से जागने की बात कही है मुझे अच्छा लगा ताकि खोई हुई नदी का फिर से अवतरण हो, बहुत बहुत बधाई इस रचना के प्रकाशन पर !
ReplyDeleteसराहना तथा प्रोत्साहन के लिए हृदय से धन्यवाद एवं आभार !
Delete~सादर
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
धन्यवाद
Deleteदोनों रचनाएँ सोचने को मजबूर कर रही हैं। कहाँ से कहाँ आ गए हम।
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें
http://chlachitra.blogspot.in/
http://cricketluverr.blogspot.com
जरूर, आभार
Deleteजीवनदायी नदी की व्यथा कथा कहती रचनाएँ । बहुत उम्दा
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया पाकर ख़ुशी हुई, धन्यवाद...ब्लॉग पर आती रहें
Deleteदोनों रचनाएं बहुत प्रभावी और नदी की अहमियत और उसकी महत्ता को स्पष्ट कर रही हैं ...
ReplyDeleteनदियाँ किसी समय में आबादी की पहचान हुआ करती थीं ... लाइफ लाइन हुआ करती हीन पर आज इनसान उनकी ख़त्म करने पे तुला है ...
सराहना तथा प्रोत्साहन के लिए हृदय से धन्यवाद एवं आभार !
Deleteबहुत प्रभावशाली रचनाएँ...सचमुच हमने अपनी नदियों की पवित्रता को मटियामेट कर दिया है, बढती हुई जनसंख्या और मानव का बढ़ता हुआ लोभ..या कहें कि अंधाधुंध विकास..सभी ने मिलकर ऐसा जाल फैलाया है कि खो गयी हैं कोमल भावनाएं...
ReplyDeleteस्वागत व आभार !!
Deleteदुःख इसी बात का होता कि लोग ये नहीं सोचते कि सरस्वती एक बार चली गयी तो लौट कर नहीं आई . हृदय को छूती है आपकी रचना.
ReplyDeleteहृदय से धन्यवाद एवं आभार !
Deleteप्रकृति मौन रह कर सब सह लेती है इसलिए इंसान उसकी कीमत नहीं समझता. दोनो ही बहुत अच्छी रचनाएँ हैं
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद
Deleteसंवेदनशील ह्रदय की बहुत सुन्दर ,सार्थक ,विचारणीय प्रस्तुति ....सादर नमन वंदन !!
ReplyDeleteसराहना तथा प्रोत्साहन के लिए हृदय से धन्यवाद एवं आभार !
Delete~सादर
nadi ki wyatha ko sundar shabd aapne diya hai...
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteनदी की व्यथा का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है आपने,
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteबेच रहे हैं नदी को
ReplyDeleteसैकड़ों गिरोहबंद
दलाल और ठेकेदार
बेच रहे हैं सपने
फैला रहे हैं भ्रमजाल
समृद्धि का कारोबार।
भूल गये हैं लोग
नदी से अपने रिश्ते
जिसके किनारों पर
मिलता था मोक्ष
बांटा करती थी जो नदी
छोटी-छोटी परेशानियाँ
क्षणभंगुर लालसाओं की
बन गयी है शिकार।
बहुत सार्थक पोस्ट !
हार्दिक आभार
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