हम जो गिर-गिर के सँभल जाते तो अच्छा होता
वहशत ए दिल से निकल जाते तो अच्छा होता
ख़्वाब आंखों में पले और बढ़े घुट-घुट कर
दो घड़ी ये भी बहल जाते तो अच्छा होता
किस तरह हमने बनाया था तमाशा अपना
कू ए जानां से निकल जाते तो अच्छा होता
धूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
हम उजालों से न छल जाते तो अच्छा होता
लब हंसे जब भी हुआ रश्क मेरे अपनों को
ऐसी सुहबत से निकल जाते तो अच्छा होता
वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
वक़्त के सांचे में ढल जाते तो अच्छा होता
© हिमकर श्याम
(तस्वीर छोटे भाई रोहित
कृष्ण की)
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.09.2015) को "सिर्फ कथनी ही नही, करनी भी "(चर्चा अंक-2095) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
शुक्रगुज़ार हूँ
Deleteशुक्रगुज़ार हूँ
ReplyDeleteबढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteबेहतरीन ......
ReplyDeleteवक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
ReplyDeleteवक़्त के सांचे में ढल पाते तो अच्छा होता ... बहुत उम्दा
बेहतरीन कविता,परिवर्तन संसार का नियम है
ReplyDeleteबहुत बेहेतरीन रचना ।
ReplyDeleteधूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
ReplyDeleteहम उजालों से न छल पाते तो अच्छा होता
लाजवाब! बहुत उम्दा ग़ज़ल .
[देर से आने के लिए माफ़ी..पिछली जो पोस्ट रह गयीं हैं उन्हें भी सब धीरे -धीरे पढूंगी..]
देर से ही सही प्रतिक्रिया मिली, शर्मिंदा न करें...तहे दिल से शुक्रिया
Deleteधूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
ReplyDeleteहम उजालों से न छल पाते तो अच्छा होता
बहुत लाजवाब शेर है ग़ज़ल का ... उजाले अक्सर जिंदगी को छल जाते हैं ... इसलिए अंधेरों से दोस्ती हीनी जरूरी है ....
वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
वक़्त के सांचे में ढल पाते तो अच्छा होता ...
काश ... समय के साथ बदलना आ जाता ... जिंदगी आसान हो जाती ...
वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
ReplyDeleteवक़्त के सांचे में ढल पाते तो अच्छा होता ... बहुत उम्दा हिमकर जी
शुक्रिया
Deleteहौसला अफजाई के लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया
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