Thursday, 10 September 2015

धूप मुठ्ठी में जो आई



हम जो गिर-गिर के सँभल जाते तो अच्छा होता
वहशत ए दिल से निकल जाते तो अच्छा होता

ख़्वाब आंखों में पले और बढ़े घुट-घुट कर
दो घड़ी ये भी बहल जाते तो अच्छा होता

किस तरह हमने बनाया था तमाशा अपना
कू ए जानां से निकल जाते तो अच्छा होता

धूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
हम उजालों से न छल जाते तो अच्छा होता

लब हंसे जब भी हुआ रश्क मेरे अपनों को
ऐसी सुहबत से निकल जाते तो अच्छा होता

वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
वक़्त के सांचे में ढल जाते तो अच्छा होता

© हिमकर श्याम 

(तस्वीर छोटे भाई रोहित कृष्ण की)


15 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.09.2015) को "सिर्फ कथनी ही नही, करनी भी "(चर्चा अंक-2095) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!

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  2. शुक्रगुज़ार हूँ

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  3. वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
    वक़्त के सांचे में ढल पाते तो अच्छा होता ... बहुत उम्दा

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  4. बेहतरीन कविता,परिवर्तन संसार का नियम है

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  5. बहुत बेहेतरीन रचना ।

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  6. धूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
    हम उजालों से न छल पाते तो अच्छा होता

    लाजवाब! बहुत उम्दा ग़ज़ल .

    [देर से आने के लिए माफ़ी..पिछली जो पोस्ट रह गयीं हैं उन्हें भी सब धीरे -धीरे पढूंगी..]

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    1. देर से ही सही प्रतिक्रिया मिली, शर्मिंदा न करें...तहे दिल से शुक्रिया

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  7. धूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
    हम उजालों से न छल पाते तो अच्छा होता
    बहुत लाजवाब शेर है ग़ज़ल का ... उजाले अक्सर जिंदगी को छल जाते हैं ... इसलिए अंधेरों से दोस्ती हीनी जरूरी है ....

    वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
    वक़्त के सांचे में ढल पाते तो अच्छा होता ...
    काश ... समय के साथ बदलना आ जाता ... जिंदगी आसान हो जाती ...

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  8. वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
    वक़्त के सांचे में ढल पाते तो अच्छा होता ... बहुत उम्दा हिमकर जी

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  9. हौसला अफजाई के लिए आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया

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