बुलंदी पे कहाँ कोई
ठहरता है
फ़लक से रोज ये सूरज
उतरता है
गरूर उसके डुबो देंगे
उसे इक दिन
नशा शोहरत का चढ़ता
है, उतरता है
दबे कितने त्वारीखों
के सफ़हों में
भला किसको ज़माना याद
रखता है
यहां कितनों को देखा
ख़ाक में मिलते
कोई नायाब ही गिर कर सँभलता
है
न देखा हो अगर तो
देखलो आकर
पलों में रुख़ सियासत
का बदलता है
न है तुमको अभी अहसास
तूफ़ां का
शजर तो आँधियों में
ही उजड़ता है
भरोसा दोस्ती का अब
नहीं हमको
जरूरत जब पड़े लहज़ा
बदलता है
कि उसके लफ़्ज़ भी
नश्तर से चुभते हैं
ज़ुबां से जहर जब कोई
उगलता है
चला है ज़ोर किसका
वक़्त के आगे
कि मुठ्ठी से हरिक
लम्हा फिसलता है
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
Umda Panktiyan....
ReplyDeleteउम्दा सोच
ReplyDeleteबेजोड़ रचना
चला है ज़ोर किसका वक़्त के आगे
ReplyDeleteकि मुठ्ठी से हरिक लम्हा फिसलता है
बहुत सुंदर गजल.
नई पोस्ट : तलाश आम आदमी की
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-10-2015) को "तलाश आम आदमी की" (चर्चा अंक-2117) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही बेहेतरीन,प्रस्तुति ।
ReplyDeletesarthak prastuti aapki hai...wah.
ReplyDeleteबुलंदी पर कहां कोई ठहरता है। बेहद शानदार रचना की प्रस्तुति।
ReplyDeleteहौसला अफजाई के लिए आप सब का तहे दिल से शुक्रिया.
ReplyDeleteगरूर उसके डुबो देंगे उसे इक दिन
ReplyDeleteनशा शोहरत का चढ़ता है, उतरता है
बहुत ही बेहेतरीन ।
शुक्रिया
Delete