जन-जन में है बेबसी, बदतर हैं हालात।
कैसा अबुआ राज है, सुने न कोई बात।।
उजड़ गयीं सब बस्तियाँ, घाव बना नासूर।
विस्थापन का दंश हम, सहने को मजबूर।।
जल, जंगल से दूर हैं, वन के दावेदार।
रोजी-रोटी के लिए, छूटा घर संसार।।
अब तक पूरे ना हुए, बिरसा के अरमान।
शोषण-पीड़ा है वही, मिला नहीं सम्मान।।
अस्थिरता, अविकास से, बदली ना तक़दीर।
बुनियादी सुविधा नहीं, किसे सुनाएँ पीर।।
सामूहिकता, सादगी और प्रकृति के गान।
नए दौर में गुम हुई, सब आदिम पहचान।।
भ्रष्ट व्यवस्था ने रचे, नित नए कीर्तिमान।
सरकारें आयीं-गयीं, चलती रही दुकान।।
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
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अस्थिरता, अविकास से, बदली ना तक़दीर।
ReplyDeleteबुनियादी सुविधा नहीं, किसे सुनाएँ पीर।..
सामाजिक सरोकार से जुड़े सभी दोहे ... हर दोहा एक नयी पीड़ा की दास्ताँ कह रहा है ...
बहुत-बहुत आभार
Deleteबहुत सुन्दर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : इच्छा मृत्यु बनाम संभावित मृत्यु की जानकारी
आभार
Deleteमार्मिक दोहे ...बहुत शानदार
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteसमसामयिक रचना....
ReplyDeleteआज के दौर की यही स्थिति है...
हार्दिक आभार
Deletebahut sunder steek abhivyakti
ReplyDeleteउजड़ गयीं सब बस्तियाँ, घाव बना नासूर।
ReplyDeleteविस्थापन का दंश हम, सहने को मजबूर।।
...वाह..बहुत सटीक और सार्थक दोहे...
बहुत-बहुत आभार
Deleteक्या बात है , शुभ रात्रि।
ReplyDeleteप्रासंगिक और प्रभावी अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteहर पंक्ति हकीकत बयां करती है
हार्दिक आभार
Deleteझारखंड के दर्द को बखूबी बयां करती हुई एक अच्छी रचना ...भ्रष्ट व्यवस्था ही दोषी है.
ReplyDeleteआज के नतीजों को देख कर लगता है अब जो नयी सरकार बनेगी उससे कुछ उम्मीद तो है.
हार्दिक आभार
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