Wednesday, 16 August 2017

हुक़ूमत को किसी से क्या पड़ी है





उलझ  कर  गर्दिशों  में  रह गई है
भला  यह ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है

कोई मरता है  मर जाये  उन्हें क्या
हुक़ूमत को  किसी  से क्या पड़ी है

हुआ आज़ाद  कहने को वतन यह
मगर  क़ायम अभी  तक बेबसी है

फ़क़त  धोका  निगाहों का उजाला
चिराग़ों   के   तले   ही   तीरग़ी   है

ये किसने दी हवा फिर रंजिशों  को
फ़ज़ा में किस क़दर नफ़रत घुली है

कोई हिन्दू, कोई  मुस्लिम यहाँ  पर
   मिलता   ढूंढ़ने  से  आदमी  है

कई  कमज़ोरियाँ  लेकर  चली  थी
यहाँ   ज़म्हूरियत   औंधे   पड़ी  है

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)