उलझ कर गर्दिशों में रह गई है
भला यह ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है
कोई मरता है मर जाये उन्हें क्या
हुक़ूमत को किसी से क्या पड़ी है
हुआ आज़ाद कहने को वतन यह
मगर क़ायम अभी तक बेबसी है
फ़क़त धोका निगाहों का उजाला
चिराग़ों के तले ही तीरग़ी है
ये किसने दी हवा फिर रंजिशों को
फ़ज़ा में किस क़दर नफ़रत घुली है
कोई हिन्दू, कोई मुस्लिम यहाँ पर
न मिलता ढूंढ़ने से आदमी है
कई कमज़ोरियाँ लेकर चली थी
यहाँ ज़म्हूरियत औंधे पड़ी है
भला यह ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है
कोई मरता है मर जाये उन्हें क्या
हुक़ूमत को किसी से क्या पड़ी है
हुआ आज़ाद कहने को वतन यह
मगर क़ायम अभी तक बेबसी है
फ़क़त धोका निगाहों का उजाला
चिराग़ों के तले ही तीरग़ी है
ये किसने दी हवा फिर रंजिशों को
फ़ज़ा में किस क़दर नफ़रत घुली है
कोई हिन्दू, कोई मुस्लिम यहाँ पर
न मिलता ढूंढ़ने से आदमी है
कई कमज़ोरियाँ लेकर चली थी
यहाँ ज़म्हूरियत औंधे पड़ी है
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)