Sunday, 5 June 2016

यहाँ मौसम बदलते जा रहे हैं




हरे जंगल जो कटते जा रहे हैं
यहाँ मौसम बदलते जा रहे हैं

किधर जाएँ यहाँ से अब परिंदे
नशेमन सब उजड़ते जा रहे हैं

नयेपन की हवा ऐसी चली है
उसी रंगत में ढलते जा रहे हैं

नई तहज़ीब में ढलता ज़माना
सभी ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं

सिखाते हैं सलीक़ा दीये हमको
हवाओं में जो जलते जा रहे हैं

कहाँ फ़ुर्सत उन्हें जो बात सुनते

वो अपनी धुन में चलते जा रहे हैं


पतंगों की तरह 'हिमकर' तसव्वुर

फ़लक पर ख़ूब उड़ते जा रहे हैं


© हिमकर श्याम


[तस्वीर फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]