हरे जंगल जो कटते जा रहे हैं यहाँ मौसम बदलते जा रहे हैं
किधर जाएँ यहाँ से अब परिंदे नशेमन सब उजड़ते जा रहे हैं
नयेपन की हवा ऐसी चली है उसी रंगत में ढलते जा रहे हैं
नई तहज़ीब में ढलता ज़माना सभी ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं
सिखाते हैं सलीक़ा दीये हमको हवाओं में जो जलते जा रहे हैं
कहाँ फ़ुर्सत उन्हें जो बात सुनतेवो अपनी धुन में चलते जा रहे हैं
पतंगों की तरह 'हिमकर' तसव्वुरफ़लक पर ख़ूब उड़ते जा रहे हैं © हिमकर श्याम
[तस्वीर : फोटोग्राफिक क्लब रूपसी के अध्यक्ष श्रद्धेय डॉ सुशील कुमार अंकन जी की]
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