Monday, 2 January 2017

नया साल आया, मुबारक घड़ी है


यकीनन नज़र में चमक आरज़ी है 
महज़ चार दिन की यहाँ चाँदनी है

जिधर  देखिए  हाय तौबा मची है
हथेली पे सरसों भला कब उगी है

चराग ए मुहब्बत बचायें  तो  कैसे
यहाँ नफ़रतों की हवा चल पड़ी है

फ़क़त आंकड़ों में नुमायाँ तरक्की
यहाँ मुफलिसी दर-बदर फिर रही है

कहाँ तितलियाँ हैं, हुए गुम परिंदे
फिज़ाओं में किसने ज़हर घोल दी है

उधर कोई बस्ती जलायी गई है
धुँआ उठ रहा है, ख़बर सनसनी है

चला छोड़ हमको ये बूढ़ा दिसम्बर
किसी अजनबी सा खड़ा जनवरी है

नईं हैं उमीदें, ख़ुशी का समाँ है  
नया साल आया, मुबारक घड़ी है 

नहीं रब्त बाकी बचा कोई हिमकर   
जहाँ दोस्ती थी, वहाँ दुश्मनी है

© हिमकर श्याम  



[तस्वीर : पुरातत्वविद डॉ हरेंद्र प्रसाद सिन्हा जी की ]