आदमी की बस्ती में भीड़
का छलावा है
झूठ की नुमाइश है, झूठ का दिखावा है
ज़िन्दगी कहाँ यूँ ख़ैरात से
सँवरती है
आज भी ज़रूरत में बस वही
निवाला है
ख़ु़श्क हो गईं नदियां, सिमटने लगे सागर
क्या कहें उसे गंगा, बन गयी जो नाला
है
जिस्म में छुपी रूहें, रूह तक हताशा हैं
हर तरफ उदासी है, बेबसी का हाला है
फिर शहर ने ओढी है चेहरे
पे बेचैनी
ज़श्न है यहां कोई या
ग़मों की माला है
थम गयी उमंगें बाजार की
अचानक ही
देखते ही जरदारी का पिटा
दिवाला है
डर हमें नहीं लगता मौसमी
बलाओं से
देश को हमारे इन हादसों
ने पाला है
हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से
साभार)
Apki kavitayen dil ko jhakjhor deti hain aur naye sirey se sochney lagta hun jo bahut hi refreshing hain!Dhanyawad!
ReplyDeleteज़िन्दगी कहाँ यूँ ख़ैरात से सँवरती है
ReplyDeleteआज भी ज़रूरत में बस वही निवाला है
too good bhaiya, never thought out of this materialistic life.
ज़िन्दगी कहाँ यूँ ख़ैरात से सँवरती है
ReplyDeleteआज भी ज़रूरत में बस वही निवाला है
बेहद उम्दा भइया
धन्यवाद रोहित...
Deleteज़िन्दगी कहाँ यूँ ख़ैरात से सँवरती है
ReplyDeleteआज भी ज़रूरत में बस वही निवाला है
बहुत बढ़िया ग़ज़ल
शुक्रिया आपका वन्दना जी…
Deleteआदमी की बस्ती में भीड़ का छलावा है
ReplyDeleteझूठ की नुमाइश है, झूठ का दिखावा है
..बहुत बढ़िया
शुक्रिया आपका…
Deleteबधाई बढ़िया रचना !!
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