Thursday, 24 May 2018

भीड़ का रहनुमा




वह रहता है हरदम
युवाओं के कंधे पर सवार
रचता है मन्त्र उन्माद का और
फूँक देता है क्षुब्ध नौजवानों के कानों में
वह करता है
आदमी को उन्मादी भीड़ में तब्दील
हाँक कर ले जाता है अपना शिकार
बनाता है हथियार
वह करता है कातिलों का झुंड तैयार
बनाता है भय का माहौल
वह करता है ऐसा प्रबन्ध कि
हो जाये तहस नहस सब कुछ
समाज, विचार और सम्वेदना
वह कब्जा कर लेता है
बुद्धि और विवेक पर

मुश्किल है निकल पाना उनका
जो शामिल हैं भीड़ में, झुंड में
छीन लिया जाता है उनसे
सोचने, समझने का सामर्थ्य
भीड़ बन करते हैं लोग अपराध
बन जाते हैं वहशी और क्रूर
नाचते हैं अदृश्य इशारों पर
वीभस्त होता है भीड़ का चेहरा

घूमता हैं सभ्य मुखौटे में
भीड़ का अदृश्य रहनुमा
छिपा लेता है खुद को
हिंसक भीड़ की आड़ में
रगो में दौड़ती है उसकी
अमानुषिक बर्बरता।

© हिमकर श्याम


(चित्र गूगल से साभार)