Sunday, 12 January 2014

तुम - ?


जब भी अपनी कविताओं में
बांधना चाहता हूं
शब्द।
एक चेहरा बार-बार
अपने भीतर
उतरता हुआ महसूस
होता है,
ठीक वैसा ही आकार लेता हुआ
जैसे कि तुम- ?
चुपके से आकर मेरे कानों में
कहती हो-
किसे बांधना चाहते हो
अपनी कविताओं में-
खुद को,  मुझे या दर्द को ?



Sunday, 5 January 2014

दूरियों का क्यूं भला मातम न हो


दूरियों का क्यूं भला मातम न हो
फ़ासले ऐसे कि शायद कम न हो

कुछ मेरी मजबूरियों का है क़सूर
और तेरी बेरुख़ी भी कम न हो

दर्द ओ ग़म क्या सुनाएं हम उसे
पास जिसके दर्द का मरहम न हो

हमने देखा है दुआओं का असर
क्या करे कोई अगर हमदम न हो

पुरख़तर आता नज़र हर रास्ता
हौसलों में गर हमारे दम न हो

ख़ूब होता है तमाशा ए करम
मुश्किले दुनिया की लेकिन कम न हो

जब तलक चलती हैं सांसे ग़म रहे
कौन है दुनिया में जिसको ग़म न हो

हार का चर्चा भला क्यूंकर करें
हाथ में जो जीत का परचम न हो

तेरी फ़ुरकत अब सही जाती नहीं
बस गिला आंखों से है जो नम न हो

पुरखतर: खतरों भरा, फ़ुरकत : जुदाई

© हिमकर श्याम 

Wednesday, 1 January 2014

स्वागत करें हम नये साल का


अभिनंदन नव वर्ष  2014


उमंगों की डोली ले आया कहार
चुनर लाल ओढ़े खड़ा कोई द्वार

कनक रश्मियों में समायी है भोर
हुए स्वप्न पुलकित, हुआ मन विभोर
नयी भोर आयी है लेकर बहार

नयी धुन फिजाओं में बजने लगी
नयी आरज़ू है, नयी है ख़ुशी
उम्मीदों के रथ पर हुए सब सवार

सभी हों निरामय, सभी हो सुखी
मिटे आह पीड़ा, मिटे बेबसी
मिले अब सभी को सुकूनों करार

न होगा किसी का जड़ों से कटाव
रुकेगा नहीं अब नदी का बहाव
चहक नीड़ में हो, चमन में गुँजार

जहाँ में न नफरत का अब नाम हो
जुबाँ पर मुहब्बत का पैगाम हो
मिटे बैर दिल का,  मिटे हर दरार

चहूँ ओर माहौल है ज़श्न का
स्वागत करें हम नये साल का
चलो अपनी किस्मत को ले कुछ सँवार

-हिमकर श्याम