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Thursday, 30 April 2015

एहसास के क्षण


राख, कितनी राख
बिखरी है चारों ओर!
ये सिसकियाँ-दहशतें, कांपता सन्नाटा
मलबे  में दबी,
सड़ी-गली लाशें,
चिराइन गंध फैलाती
धू-धू करती चिताएँ
मौत निगल गई  ज़िन्दगी को
देखते-देखते।

सन्नाटे को थर्राती एकाकी चीख़
बुझती हुई कांपती लौ
फिर सब कुछ शांत, निःशब्द, निस्पंद।
कैसा यह कहर,
तबाही का मंजर।

यह नीरवता,
मरघट सी उदासी
पढ़ रही मर्सिया
भोर के उजास के सपने देखती
हर ज़िन्दगी की
मौत पर।

विधाता दे दे मुझे
एहसास के कुछ क्षण
साहस और संबल
जीने के लिए।

© हिमकर श्याम

[तस्वीर रोहित कृष्ण की]