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Thursday, 10 September 2015

धूप मुठ्ठी में जो आई



हम जो गिर-गिर के सँभल जाते तो अच्छा होता
वहशत ए दिल से निकल जाते तो अच्छा होता

ख़्वाब आंखों में पले और बढ़े घुट-घुट कर
दो घड़ी ये भी बहल जाते तो अच्छा होता

किस तरह हमने बनाया था तमाशा अपना
कू ए जानां से निकल जाते तो अच्छा होता

धूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
हम उजालों से न छल जाते तो अच्छा होता

लब हंसे जब भी हुआ रश्क मेरे अपनों को
ऐसी सुहबत से निकल जाते तो अच्छा होता

वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
वक़्त के सांचे में ढल जाते तो अच्छा होता

© हिमकर श्याम 

(तस्वीर छोटे भाई रोहित कृष्ण की)