हम जो गिर-गिर के सँभल जाते तो अच्छा होता
वहशत ए दिल से निकल जाते तो अच्छा होता
ख़्वाब आंखों में पले और बढ़े घुट-घुट कर
दो घड़ी ये भी बहल जाते तो अच्छा होता
किस तरह हमने बनाया था तमाशा अपना
कू ए जानां से निकल जाते तो अच्छा होता
धूप मुठ्ठी में जो आई तो सजे थे अरमां
हम उजालों से न छल जाते तो अच्छा होता
लब हंसे जब भी हुआ रश्क मेरे अपनों को
ऐसी सुहबत से निकल जाते तो अच्छा होता
वक़्त के साथ न हिमकर ने बदलना सीखा
वक़्त के सांचे में ढल जाते तो अच्छा होता
© हिमकर श्याम
(तस्वीर छोटे भाई रोहित
कृष्ण की)