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Tuesday, 3 November 2015

ज़िंदगी

[आज इस 'ब्लॉगके दो वर्ष पूरे हो गए। इन दो वर्षों में आप लोगों का जो स्नेह और सहयोग मिलाउसके लिए तहे दिल से शुक्रिया और आभार। यूँही आप सभी का स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहे यही चाह है। इस मौक़े पर एक कविता आप सब के लिए सादर,] 


पहली बारिश में
चट्टानों के नीचे
दबी हुई बीजों से
फूटते हैं अंकुर

ज़र्ज़र इमारतों की
भग्न दीवारों के
बीच उग आते हैं
पीपल और बरगद

वासंती छुवन से
निष्प्राण शाखों पे
फूटने लगती हैं
नई-नई कोंपलें

हर रोजहर रात
जोशों-खरोस से
जूझते हैं मौत से 
सैकड़ों कीट-पतंगे

ईटों-गारों के बीच
पलती हैं चींटियाँ
तपती मरूभूमि में
खिलता है कैक्टस

मौत की वीरानियों में
करवट लेता है जीवन  
अथाह पीड़ा के बाद
मुस्कुराती है ज़िंदगी।

© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)