अखबारों में नहीं दिखता
उस आदमी का चेहरा
मीडिया को नहीं लुभाती
हाशिए के लोगों की खबर
उनकी छोटी-बड़ी परेशानियां
पीड़ा और हताशा
मीडिया को भाती है
हर चटखदार खबर
जिससे मिलती है
टीआरपी को बढ़त
कमाते हैं सब मुनाफा
भुनाते हैं सब गरीबी
करते हैं सब झूठा वादा
बेचते हैं मानवीय भावनाएँ
अपनी सुविधानुसार
गढ़ते हैं परिभाषाएँ
उड़ाते हैं गरीबों का मजाक
'स्लम' के बच्चों की तुलना
करते हैं डॉग से, बनाते हैं
स्लम डॉग मिलेनियर
मचाते हैं धूम, पाते हैं ऑस्कर
मनाया जाता है ज़श्न
गणतंत्र का
ख़ूब दी जाती है दुहाई
जनतंत्र की
खाई जाती है कसमें
संविधान की
टटोलता नही है कोई
जन-गण के मन को
अनसुनी है जिसकी आवाज़
सुधरे नहीं जिसके हालात
खड़ा है जो भीड़ में
विस्मित और निराश
देखता है दूर से तमाशा
घुटता रहता है चुपचाप ।
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)