Tuesday, 1 July 2014

थकन के सिवा




क्या सराबों में रक्खा थकन के सिवा
ज़िन्दगी क्या है रंजो मेहन के सिवा

अपनी किस्मत से बढ़कर, मिला है किसे
क्या मिला खूँ जलाकर घुटन के सिवा

अजनबी शहर में ठौर मिल जाएगा
पर सुकूं ना मिलेगा वतन के सिवा

हर कदम पे हुनर काम आता यहां
कौन देता भला साथ फ़न के सिवा

आप पर मैं निछावर करूँ, क्या करूँ
पास क्या है मेरे जान-ओ-तन के सिवा

कौन गुलशन में तेरे न बिस्मिल हुआ
किसको गुल रास आया चुभन के सिवा

ढूंढते सब रहे खुशबुओं का पता
बू--गुल है कहाँ इस चमन के सिवा

इस जहाँ में नहीं कोई जा--क़रार
इक फ़क़त आपकी अंजुमन के सिवा

यूँ तो शहरे निगाराँ बहोत हैं मगर
कोई जँचता नहीं है वतन के सिवा

जो मिला है यहां छूटता जाएगा
साथ में क्या रहेगा कफन के सिवा

फ़र्क़ अच्छे बुरे का न वो कर सका
उसने देखा न कुछ पैरहन के सिवा

सराबों : मृगतृष्णा, रंजो मेहन : दुःख और तकलीफ़, बिस्मिल : ज़ख़्मी, शहरे निगाराँ : महबूब शहर, पैरहन: लिबास

(अज़ीज़ दोस्त और शायर जनाब अरमान 'ताज़' जी का तहे दिल से शुक्रिया जिनकी मदद से यह गज़ल मुकम्मल हुई.)

© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)

Saturday, 14 June 2014

पिता


[पितृ दिवस पर]


जीवन के आधार में
लयबद्ध संस्कार में
नाम में, पहचान में 
झंझावतों, तूफान में
प्राणों पे उपकार पिता के

डाँट में, फटकार में
प्यार और दुलार में
बंदिशों, नसीहतों में
सबकी जरूरतों में
काँधे पर है हाथ पिता के

मनचाहे वरदान में
हर आँसू, मुस्कान में
अनजाने विश्वास में
सुरक्षा के अहसास में
मत भूलो अहसान पिता के

सादगी की सूरत में
करूणा की मूरत में
जीने के शऊर में
अम्मा के सिंदूर में
निश्छल हैं जज्बात पिता के

सिंधु सी लहक में
शौर्य की दमक में
अद्भुत संघर्ष में
अथाह सामर्थ्य में
अलहदा ख़्यालात पिता के

देह के आवरण में
नेह के आचरण में
रिश्तों के बंधन में
वंदन और नमन में
चरणों में कायनात पिता के ।

[पिता जी]


© हिमकर श्याम