क्या सराबों में रक्खा थकन के सिवा
ज़िन्दगी क्या है रंजो मेहन के सिवा
अपनी किस्मत से बढ़कर, मिला है किसे
क्या मिला खूँ जलाकर घुटन के सिवा
अजनबी शहर में ठौर मिल जाएगा
पर सुकूं ना मिलेगा वतन के सिवा
हर कदम पे हुनर काम आता यहां
कौन देता भला साथ फ़न के सिवा
आप पर मैं निछावर करूँ, क्या करूँ
पास क्या है मेरे जान-ओ-तन के सिवा
कौन गुलशन में तेरे न बिस्मिल हुआ
किसको गुल रास आया चुभन के सिवा
ढूंढते सब रहे खुशबुओं का पता
बू-ए-गुल है कहाँ इस चमन के
सिवा
इस जहाँ में नहीं कोई जा-ए-क़रार
इक फ़क़त आपकी अंजुमन के सिवा
यूँ तो शहरे निगाराँ बहोत हैं मगर
कोई जँचता नहीं है वतन के सिवा
जो मिला है यहां छूटता जाएगा
साथ में क्या रहेगा कफन के सिवा
फ़र्क़ अच्छे बुरे का न वो कर सका
उसने देखा न कुछ पैरहन के सिवा
सराबों : मृगतृष्णा, रंजो मेहन :
दुःख और तकलीफ़, बिस्मिल : ज़ख़्मी, शहरे निगाराँ : महबूब शहर, पैरहन: लिबास
(अज़ीज़ दोस्त और शायर जनाब अरमान 'ताज़' जी का तहे दिल से शुक्रिया जिनकी मदद से
यह गज़ल मुकम्मल हुई.)
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)