Thursday, 24 March 2016
Sunday, 13 March 2016
तमाशा जात मज़हब का खड़ा करना बहाना है
Sunday, 14 February 2016
किसी की चाह सीने में जगा कर देखते हैं
मुहब्बत की हक़ीक़त आज़मा कर देखते हैं
किसी की चाह सीने में जगा कर देखते हैं
किसी की चाह सीने में जगा कर देखते हैं
ज़मीनों आसमा के फासले मिटते न देखे
चलो हम आज ये दूरी मिटा कर देखते हैं
ये कैसी आग है इसमे फ़ना होते हैं कितने
कभी इस आग में खुद को जला कर देखते हैं
कभी इस आग में खुद को जला कर देखते हैं
बड़ी बेदर्द दुनिया है बड़ा खुदसर जमाना
किसी के दर्द को अपना बना कर देखते हैं
किसी के दर्द को अपना बना कर देखते हैं
तुम्हारी याद की खुशबू अभी तक आ रही है
पुरानी डायरी अपनी उठाकर देखते हैं
पुरानी डायरी अपनी उठाकर देखते हैं
उन्हें देखे से लगता है पुरानी आशनासाई
यकीं आ जाएगा नज़दीक जाकर देखते है
यकीं आ जाएगा नज़दीक जाकर देखते है
उमीदें हैं अभी रौशन रगों में है रवानी
गुज़रते वक़्त से लम्हा चुरा कर देखते हैं
गुज़रते वक़्त से लम्हा चुरा कर देखते हैं
भरोसा क्या लकीरों का, मुक़द्दर से गिला क्या
खफ़ा है ज़िन्दगी हिमकर मनाकर देखते हैं
खफ़ा है ज़िन्दगी हिमकर मनाकर देखते हैं
© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)
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