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Thursday, 14 February 2019

हिज्र की रात तो ढली ही नहीं



हिज्र  की रात तो ढली ही नहीं
वस्ल की  आरज़ू गई ही नहीं

मेरे दिल में थी बस तेरी चाहत
आरजू  और कोई थी  ही नहीं

मैंने तुझको  कहाँ  नहीं  ढूँढा
यार तेरी ख़बर मिली ही नहीं

इश्क़ से थी हयात में लज़्ज़त
ज़िन्दगी बाद तेरे जी ही नहीं

मिन्नतें इल्तिज़ा  न कम की थी
बात लेकिन कभी सुनी ही नहीं 

काश कोई सुराख़ मिल जाये
बंद कमरे में  रोशनी ही नहीं

उससे कोई  उमीद मत रखना
वो भरोसे का आदमी ही नहीं

हर जगह देखता तेरी सूरत
फ़िक़्र से दूर तू गई ही नहीं

इक अज़ब सा सुकूत है  हिमकर
बात बिगड़ी तो फिर बनी ही नहीं


© हिमकर श्याम

(चित्र गूगल से साभार)


Saturday, 14 February 2015

इश्क़ की पनाहों में

सफ़र का लुत्फ़ मिले ज़िंदगी की राहों में
चलूँ जो साथ तेरे इश्क़ की पनाहों में

महक उठी हैं फिजाएँ किसी के आने से
बहार बन के समाया है कौन चाहों में

असर कुछ ऐसा हुआ उनके शोख जलवों का
उन्हीं का अक्स बसा जाता है निगाहों में

गिला रहा न कोई अब हयात से हमको
सिमट के आ गईं ख़ुशियाँ तमाम बाँहों में 

ख़बर थी अपनी, न थी फ़िक्र कोई दुनिया की
सुकून इतना मिला हमको जल्वागाहों में
  
किसी ने याद किया आज मुझको शिद्दत से
खड़ीं हैं साथ मेरे हिचकियाँ गवाहों में

घटा जो आज तेरी सांसों को छुके उट्ठी
वो बरसे आके मेरे दिल की प्यासी राहों में

शुमार इश्क़ न हो खानुमा ख़राबों में
करे न ज़िक्र कोई प्यार का गुनाहों में 

कभी तो हाल सुनो पास आके 'हिमकर' के
बदल न जाए सदा उसकी सर्द आहों में 

© हिमकर श्याम
(चित्र गूगल से साभार)